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________________ अमितगतिकृतः श्रावकाचारः ३५७ विविधकोषविधायिपरिग्रहः पिबति मद्यमयन्त्रितमानसः । कृमिकुलाकुलितं ग्रसते फलं कलिलकर्मविधानविशारदः ।। ३७ दृढकुटुम्बपरिग्रहपञ्जरः प्रशमशीलगुणवतजितः । गुरुकषायभुजङ्गमसेवितो विषयलोलमपात्रमशन्ति तम् ।। ३८ विबुध्य पात्रं बहुधेति पण्डितैविशुद्धबुद्धया गुणदोषभाजनम् । विहाय गां परिगृह्य पावनं शिवाय दानं विधिना वितीर्यते ।। ३९ कृतोसरासमपवित्रविग्रहो निजालयद्वारगतो निराकुलः । ससम्भ्रमः स्वीकुरुते तपोधनं नमोऽस्तु तिष्ठति कृतध्वनि तः ।। ४० सुसंस्कृते पूज्यतमे गृहान्तरे तपस्विनं स्थाश्यते विधानतः । मनीषितानेकफलप्रदायक सुदुर्लभं रत्नमिवास्तदूषणम् ॥ ४१ अनेकजन्माजितकर्मकतिनस्तपोनिधेस्तत्र पवित्रवारिणा। स सादरं क्षालयते पदद्वयं विमुक्तये मुक्ति सुखाभिलाषिणः ॥ ४२ प्रसूनगन्धाक्षतदीपिकादिभिः: प्रपूज्य मामरवर्गपूजितम् । मुदा मुमुक्षोः पदपङ्कजद्वयं स वन्दते मस्तकपाणिकुड्मलः ॥ ४३ मनोवचःकायविशुद्धिमञ्जसा विधाय विध्वस्तमनो भवद्विषे। चतुर्विधाहारमहार्यनिश्चयो ददाति स प्रासुकमात्मकल्पितम् ।। ४४ वचन बोलता हो, जो विना दिया धन अनेक अवैध मार्गोसे हरण करता हो, कामबाणसे पीडित होकर जो स्त्रीका सेवन करता हो, अनेक दोषोंका विधायक परिग्रह रखता हो,जो मद्यको पीता हो, अनियन्त्रित चित्त हो, जो कृमि-समूहसे भरे हुए मांस और उदुम्बर फलोंको खाता हो,पापकर्मोके करने में विशारद हो, जो कुटुम्ब और परिग्रहके दृढ पिंजरे में बन्द हो, जो प्रशमभाव, शील, व्रत और गुणवतसे रहित हो, जो प्रबल कषायरूप भुजंगोंसे से वित हो और इन्द्रियोंके विषयोंका लोलुपी हो, ऐसे पुरुषको अपात्र कहते है ।।३६-३८।। इस प्रकार पंडितजन अपनी विशुद्ध बुद्धिसे गुण और दोषके भाजन अनेक प्रकारके पात्रोंको जानकर निंद्य पात्रको छोडकर और पवित्र पात्रको ग्रहण कर मोक्ष-प्राप्तिके लिए विधि-पूर्वक दान देते हैं ॥३९।। अब उत्तम पात्रको आहार देनेकी विधि कहते है-जिसने स्नानसे पवित्र होकर धोती और दुपट्टा धारण किया है, जो अपने भवनके द्वारपर खडा है, आकुलतासे रहित है, ऐसा श्रावक स्वयं आये हुए तपोधन साधुको देखकर 'नमोऽस्तु', 'तिष्ठ' ऐसी ध्व न करता हुआ अत्यन्त हर्षके साथ उन्हें स्वीकार करता हैं, अर्थात् पडिगाहता है, पुनः सुसंस्कृत और पूज्यतम गृहके मध्य में विधिपूर्वक उस तपस्वीको बैठाता हैं, पुनः मनोवांछित अनेक फलोंके देने वाले, अति दुर्लभ निर्दोष रत्नके समान अनेक जन्म-संचित कर्मोके काटनेवाले और मुक्ति-सुखके अभिलाषी उस तपोनिधिके चरण-युगलको मुक्ति पाने के लिए पवित्र जलसे सादर प्रक्षालन करता हैं, पुनः मनुष्य और देव गणसे पूजित उस मुमुक्षु साधुके चरणकमल युगलक पुष्प, गन्ध, अक्षत, दीपक आदि द्रव्योंसे पूजाकर अपने मस्तकपर हस्त-युगलको जोडकर रखते हुए उनकी वन्दना करता है, पुनः मन वचन कायकी शुद्धिको करके निश्चयसे कामदेव-रूपी शत्रुके विध्वंसक उस तपोधनको अपने लिए बनाये प्रासुक चतुर्विध आहारको अप१ मु. पलं' पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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