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श्रावकाचार-संग्रह
अनेन दत्तं विधिना तपस्विनां महाफलं स्तोकमपि प्रजायते। वसुन्धरायां बटपादस्य किं न बीजमुप्तं परमेति विस्तरम् ॥ ४५ निवेशितं बीजमिलातलेऽनघे विना विधानं न फलावहं यथा। तथा न पात्राय वितीर्णमञ्जसा ददाति दानं विधिना विना फलम् ॥ ४६ सदाऽतिथिभ्यो विनयं वितन्वता निजं प्रदेयं प्रियजल्पिना धनम् । प्रजायते कर्कशभाषिणा स्फुटं धनं वितीर्ण गुरुवैरकारणम् ॥ ४७ निगद्य यः कर्कशमस्तचेतनो निजं प्रदत्ते द्रविणं शठत्वतः । सुखाय दुःखोदयकारणं परं मूल्येन गण्हाति स दुर्मनाः कलिम् ॥ ४८ सम्यग्मक्ति कुर्वतः संयतेभ्यो द्रव्यं भावं कालमालोक्य दत्तम् । दातुर्दानं भूरि पुण्यं विधत्ते सामग्रीतः सर्वकार्यप्रसिद्धिः ।। ४९ • बलाहकादेकरसं विनिर्गतं यथा पयो भूरिरसं निसर्गतः । विचित्रमाधारमवाप्य जायते तथा स्फुटं दानमपि प्रदातृतः ।।५।। घटे यथाऽमे सलिलं निवेशितं पलायते क्षिप्रमसौ च भिद्यते। तथा वितीर्ण विगुणाय निष्फलं प्रजायते दानमसौ च नश्यते ॥५१।। विना विवेकेन यथा तपस्विना यथा पटुत्वेन विना सरस्वती।
तथा विधानेन विना वदान्यता न जायते कर्मकरी कदाचन ॥५२।। रिहार्य नियमके साथ अलोभवृत्तिसे देता हैं। सारांश-उक्त प्रकारसे पडिगाहना आदि नवधा भक्तिपूर्वक साधुओंको निर्दोष प्रासुक आहार देना चाहिए ।।४०-४४।।
इस उपर्युक्त विधिसे तपस्वियोंको दिया गया थोडा सा भी दान महान् फलको उत्पन्न करता हैं । उत्तम भूमिमें बोया वट वृक्षका बीज क्या महा विस्तारको नहीं प्राप्त होता हैं? होता ही हैं ॥४५॥ और जैसे निर्दोष भी भूमितल पर विना विधिके बोया गया बीज फल-प्रदायक नहीं होता हैं, उसी प्रकार विना विधिके पात्रके लिए दिया गया दान भी नियमसे फलको नहीं देता हैं ॥४६।। इसलिए सदा ही विनयका विस्तार करते हुए प्रिय वचन बोलनेवाले गृहस्थको अतिथियोंके लिए अपना धन देना चाहिए । क्योंकि कर्कश बोलनेवाले दाताके द्वारा दिया धन नियमसे महा बैरका कारण होता है ।।४७।। जो निर्बुद्धि पुरुष मूर्खतासे कर्कश वचन बोल कर सुख पानेके लिए पात्रोंको धन देता है,वह दुर्बुद्धि धनरूप मूल्यसे परम दुखोंके उदयके कारणभूत पापको ग्रहण करता है ॥४८॥ जो बुद्धिमान् पुरुष द्रव्य, क्षेत्र,काल भावका विचार करके भले प्रकारसे भक्तिको करते हुए संयमी पुरुषोंके लिये दान देता है, वह दान दाताके लिए भारी पुण्यका विधान करता है, क्योंकि सभी कार्योंकी सिद्धि समुचित कारण-सम्पन्न सामग्रीसे होती है ।।४९।। जैसे मेघसे एक रसवाला निकला हुआ जल नाना प्रकारके आधारोंको पाकर स्वभावतः विभिन्न रसवाला हो जाता है उसी प्रकार दातासे दिया गया एक प्रकारका भी दान पात्रोंके भेदसे स्पष्टतः नाना प्रकारका फल देनेवाला हो जाता हैं ।।५०।। जैसे मिट्टीके कच्चे घड में भरा हुआ जल शीघ्र ही बाहिर निकल जाता हैं और वह घडा भी फूट जाता हैं, इसी प्रकार गुण-रहित पात्रके लिए दिया गया दान भी निष्फल जाता है और वह पात्र भी विनष्ट हो जाता है ।।५१।। जैसे विवेकके विना तपस्वीपना सुखकारी नहीं, जैसे चातुर्यके विना सरस्वती सुख कारिणी नहीं है, इसी प्रकार नवधा भक्तिरूप विधि विधानके
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