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________________ श्रावकाचार-संग्रह अण्णे कलंकवालय' थलम्मि तत्तम्मि पाडिऊण पुणो। लोट्टाविति रडतं णिहणंति घसंति भूमीए । असुरा वि कूरपावा तत्थ वि गंतूण पुव्ववेराई । सुमराविऊण तओ जुद्धं लायंति अण्णोण्णं ॥ १७० सत्तव अहोलोए पुढवीओ तत्थ सयसहस्साइं। णिरयाणं चुलसीई सेटिंद-पइण्णयाण हवे ।। १७१ रयणप्पह-सक्करपह-बालुप्पह-पंक-धूम-तमभासा ।। तमतमपहा य पुढवीणं जाण अणुवत्थणामाई' ।। १७२ . पढमाए पुढवीए वाससहस्साई वह जहण्णाऊ । समयम्मि वणिया सायरोवमं होई उक्कस्सं' ।। १७३ पढमाइ जमुक्कस्सं विदियाइसु साहियं जहण्णं तं । तिय सत्त दस य सत्तरस दुसहिया बीस तेत्तीसं ॥ १७४ सायरसंखा एसा कमेण विदियाइ जाण पुढवोसु । उक्कस्साउपमाणं णिहिट्ठ जिणरिदेहि ।। १७५ एत्तियपमाणकालं सारीरं माणसं बहुपयारं । दुक्खं सहेइ तिव्वं वसणस्स फलोणमा जावा ।। १७६ तिर्यंचगतिदुःख-वर्णन तिरियगईए वि तहा थावरकाएसु बहुपयारेसु । अच्छइ अणंतकालं हिंडतो जोणिलक्खेसु। १७७ कहमवि णिस्सरिऊणं तत्तो विलिदिएसु संभवइ । तत्थ वि किलिस्समाणो कालमसंखेज्जयं वसइ ॥ १७८ मैदानमें डालकर रोते हुए उसे लोट-पोट करते हैं, मारते हैं, और भूमिपर घसीटते हैं ।। १६९ ।। क्रूर और पापी असुर जातिके देव भी वहां जाकर और पूर्वभवके वैरोंकी याद दिलाकर उन नारकियोंको आपसमें लडवाते हैं ।। १७० ।। अधोलोकमें सात पृथिवियाँ हैं, उनमें श्रेणीबद्ध, इन्द्रक और प्रकीर्णक नामके चौरासी लाख नरक हैं ।। १७१।। उन पथिवियोंके रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, वालुकाप्रभा, पकप्रभा, धूमप्रभा, तमप्रभा और तमस्तमप्रभा (महातमप्रभा) ये अन्वर्थ अर्थात् सार्थक नाम जानना चाहिए ।। १७२। परमागममें प्रथम पृथिवीके नारकियोंकी जघन्य आयु दश हजार वर्षकी कही गई है, और उत्कृष्ट आय एक सागरोपम होती है।॥१७३।। प्रथमादिक पृथिवियोंमें जो उत्कृष्ट आयु होती है, कुछ अधिक अर्थात् एक समय अधिक वही द्वितीयादिक पृथिवियोंमें जघन्य आय जानना चाहिए। जिनेन्द्र भगवानने द्वितीयादिक पृथिवियोम उत्कृष्ट आयुका प्रमाण क्रमसे तीन सागर, सात सागर, दश सागर, सत्तरह सागर, बाईस सागर और तैंतीस सागर प्रमाण कहा है ।। १७४-१७५ ।। व्यसन-सेवनके फलसे यह जीव इतने ( उपर्युक्त-प्रमाण) काल तक नरकोंमें अनेक प्रकारके शारीरिक और मानसिक तीव दुःखको सहन करता है ।। १७६ ।। __इसी प्रकार व्यसन-सेवनके फलसे यह जीव तिर्यञ्च गतिकी लाखों योनिवाली बहुत प्रकारकी स्थावरकायकी जातियोंमें अनन्त काल तक भ्रमण करता रहता है ।। १७७ ।। उस स्थावकायमेंसे किसी प्रकार निकलकर विकलेन्द्रिय अर्थात् द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवोंमें उत्पन्न होता है, तो वहां भी क्लेश उठाता हुआ असंख्यात काल तक परिभ्रमण करता रहता है । १७८ ।। ...१ कलववालुय- कदंबप्रसूनाकारा वालुकाचितदुःप्रवेशाः वज्रदलालकृत-खदिरांगार-कणप्रकरोप मानाः। मूलारा० गा० १५६८ विजयोदया टीका। २ व जुप्स । ३ इ. अनुतृतथ०, म अणुवट्ठ । ४ मुद्रितप्रती गाथेयं रिक्ता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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