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________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार तं कि ते विस्तरियं जेण मुहं कुणसि रे पराहुत्तं । एव भणिऊण कुसि छुहिति तुंडम्मि पज्जलियं ।। १६० अइतिव्वदाहसंताविओ तिसावेयणासमभिभओ । किमि - इ - रुहिरपुण्णं वइतरणिण तओ विसइ ॥ १६१ तत्थ वि पविट्ठमित्तो' खारुण्हजलेण दड्ढसव्वंगो । freers तओ तुरिओ हाहाकार पकुब्वती ।। १६२ दट्ठूण णारया णीलमंडवे ' तत्तलोहपडिमाओ । आलिंगाविति तहि धरिऊण बला विलवमाणं ॥ १६३ अगणित्ता गुरुवयणं परिस्थि-वेसं च आसि सेवंतो । एहिं तं पावफलं ण सहसि किं रुवसि तं जेण ।। १६४ पुव्यभवे जं कम्मं पंचिदियवसगएण जीवेण हसमाणेण विबद्धं तं कि णित्थरसि रोवंतो ।। १६५ किकवाय गिद्ध - वायसरूवं धरिऊण णारया चेव । ४पहरंति वज्जमयतुंड - तिक्खणहरेहि" दयरहिया ।। १६६ धरिऊण उड्ढजंघ करकच- चक्केहिं केइ फार्डति । मुसलेह मुग्गरेहिय चुण्णी चुण्णी कुणंति परे ।। १६७ जिमाछेयण णयणाण फोडणं दंतचूरणं दलणं । मलणं कुणंति खंडंति केई तिलमत्तखंडेहि ।। १६८ ४३९ करता था ।। १५९ ।। सो क्या वह तू भूल गया है, जो अब अपना मांस खानेसे मुंहको मोडता है, ऐसा कहकर जलते हुए कुशको उसके मुखमें डालते हैं ।। १६० ।। तब अति तीव्र होकर और प्यासकी प्रबल वेदनासे परिपीडित हो वह ( प्यास बुझाने की इच्छा से) कृमि, पीप और रुधिरसे परिपूर्ण वैतरणी नदीमें घुसता है । १६१ ।। उसमें घुसते ही खारे और उष्ण जलसे उसका सारा शरीर जल जाता है, तब वह तुरन्त ही हाहाकार करता हुआ वहांसे निकलता है ।। १६२ । नारकी उसे भागता हुआ देखकर और पकडकर काले लोहेसे बनाये गये नील- मंडप में ले जाकर विलाप करते हुए उसे जबर्दस्ती तपाई हुई लोहेकी प्रतिमाओंसे ( पुतलियोंसे ) आलिंगन कराते हैं ।। १६३ ।। और कहते हैं कि- गुरुजनोंके वचनोंको कुछ नहीं गिनकर पूर्वभव में तूने परस्त्री और वेश्या का सेवन किया है। अब इस समय उस पापके फलको क्यों नहीं सहता है, जिससे कि रो रहा है ।। १६४ ।। पूर्वभव में पांचों इन्द्रियोंके वश होकर हँसते हुए रे पापी जीव, तूने जो कर्म बांधे हैं, सो क्या उन्हें रोते हुए दूर कर सकता है ? ।। १६५ ।। वे दया- रहित नारकी जीव ही कृकवाक ( कुक्कुट - मुर्गा ) गिद्ध, काक, आदिके रूपोंको धारण करके वज्रमय चोंचोंसे, तीक्ष्ण नखों और दांतोंसे उसे नोचते हैं ।। १६६ ।। कितने ही नारकी उसे ऊर्ध्वजंघ कर अर्थात् शिर नीचे और जांघें ऊपर कर करकच (करोंत या आरा) और चक्रसे चीर फाड डालते हैं । तथा कितने ही नारकी उसे मूसल और मुद्गरोंसे चूरा-चूरा कर डालते हैं ।। १६७ ।। कितने हो नारकी जीभ काटते हैं, आंखें फोडते हैं, दाँत तोडते हैं और सारे शरीरका दलन-मलन करते हैं। कितने ही नारकी तिल -प्रमाण खंडोंसे उसके टुकडे-टुकडे कर डालते हैं ।। १६८ ।। कितने ही नारकी तपाये हुए तीक्ष्ण रेतीले १ ब. सत्तो. प. म. मित्ता । २ काललोहघटितमडपे । मूलाराधना गा० १५६९ विजयो. टीका । ३ प० णिरसि, झ. ब. णिच्छरसि । ४ प. पहणंति । ५ इ. तिक्खर्णादि : मूलारा० १५७१ । चुणीकुव्वंति परे णिरया । ६ म. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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