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________________ ४३८ श्रावकाचार-संग्रह तत्तोपलाइऊणं कह वि य माएण'वड्ढसव्वंगो। गिरिकंदरम्मि सहसा पविसइ सरणं त्ति मण्णत्तो॥ तत्थ वि पडंति उरि सिलाउ तो ताहि चण्णिओ संतो। गलमाणरुहिरधारो रडिऊण खणं तओ णोइ' ॥ १५२ रइयाण सरीरंकीरइ जइतिलपमाणखंडाइ।पारद-रसुव्व लग्गइ अपुण्णकालम्मि ण मरेइ ।। १५३ तत्तो पलायमाणो रुंभइ सोणारएहिं दळूण। पाइज्जइ विलवंतो अय-तंबय-कलयलं तत्तं ॥१५४ पच्चारिज्जइजते पीयं मज्ज महं च पुस्वभवे । तं पावफलं पत्तं पिबेहि अयकलयलं घोरं ।। १५५ कह वि तओ जइ छुट्टो असिपत्तवणम्मि विसइ भयभीओ। णिबडंति तत्थ पत्ताई खग्गसरिसाइं अणवरयं ।। १५६ तो तम्हि पत्तपडणेण छिण्णकर-चरण भिण्णपुद्धि-सिरो। पगलंतरुहिरधारो कंदतो सो तओ णीइ° । १५७ तुरियं पलायमाणं सहसाधरिऊण णारया कूरा। छित्तूण तस्स मंसं तुंडम्मि छुहंति'' तस्सेव ।। १५८ भोत्तुं अणिच्छमाणं णियमंसं तो भणंति रे दुटु । अइमिट्ठ भणिऊण भक्खंतो आसि जं पुष्वं । १५९ भोगता है ।। १५० ।। जबर्दस्ती जला दिये गये हैं सर्व अंग जिसके, ऐसा वह नारकी जिस किसी प्रकार उस अग्निकुण्डसे भागकर पर्वतकी गुफामें 'यहां शरण मिलेगा ऐसा समझता हुआ सहसा प्रवेश करता है ।। १५१ ।। किन्तु वहांपर भी उसके ऊपर पत्थरोंकी शिलाएं पडती हैं, तब उनसे चूर्ण होता हुआ और जिसके खूनकी धाराएँ बह रही हैं, ऐसा होकर चिल्लाता हुआ क्षणमात्रमें वहांसे निकल भागता है।। १५२ ।। नारकियोंके शरीरके यदि तिल-तिलके बराबर भी खंड कर दिये जावें, तो भी वह पारेके समान तुरन्त आपसमें मिल जाते हैं, क्योंकि, अपूर्ण कालमें अर्थात् असमयमें नार में मरता है।। १५३॥उस गफामेंसे निकलकर भागता हआ देखकर वह नारकियोंके द्वारा रोक लिया जाता है और उनके द्वारा उसे जबर्दस्ती तपाया हुआ लोहा तांबा आदिका रस पिलया जाता है ।। १५४ ।। वे नारकी उसे याद दिलाते हैं कि पूर्व भवमें तूने मद्य और मधुको पिया है, उस पापका फल प्राप्त हुआ है, अतः अब यह घोर 'अयकलकल' अर्थात् लोहा, तांबा आदिका मिश्रित रस पी ।। १५५ ॥ यदि किसी प्रकार वहांसे छूटा, तो भयभीत हुआ वह असिपत्र बनमें, अर्थात् जिस वनके वृक्षोंके पत्ते तलवारके समान तीक्ष्ण होते हैं, उसमें 'यहां शरण मिलेगा' ऐसा समझकर घुसता है। किन्तु वहांपर भी तलवारके समान तेज धारवाले वृक्षोंके पत्ते निरन्तर उसके ऊपर पडते हैं ।। १५६ । जब उस असिपत्रवनमें पत्तोंके गिरने से उसके हाथ, पैर, पीठ, शिर आदि कट-कटकर अलग हो जाते हैं, और शरीरसे खूनकी धारा बहने लगती है, तब वह चिल्लाता हुआ वहांसे भी भागता है ।। १५७ ।। वहांसे जल्दी भागते हुए उसे देखकर क्रूर नारकी सहसा पकडकर और उसका मांस काटकर उसीके मुंहमें डालते हैं । १५८ ॥ जब वह अपने मांसको नहीं खाना चाहता है, तब वे नारको कहते हैं कि, अरे दुष्ट, तू तो पूर्व भवमें परजीवोंके मांसको बहुत मीठा कहकर खाया १ झ. वयमाएण, ब वपमाएण । २ इ. तेहि । ३ म. णियइ । ४ ब. णाइज्जइ । म. पविज्जइ । ५ इ. अयवयं, य. अससंवय । ६ कलयल-ताम्र-शीसक-तिल-सर्जरस-गुग्गुल-सिक्थक-लवण-जतु-वज्रलेपाः क्वाथयित्वा मिलिता 'कलकल' इत्युच्यन्ते । मूलारा० गा० १५६९ आशाधरी टोका। ७ ब. म. तो। ८ ब तव । ९ झ वच्छ० । १० इ. म. णियइ । ११ इ. छहंति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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