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________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार ४३७ तं तारिससीदुण्हं खेत्तसहावेण होइ णिरएसु । विसहइ जावज्जीवं वसणस्स फलेणिमोजीओ।।१४० तोतम्हि जायमत्ते सहसा वठ्ठण णारया सवे पहरंति सत्ति-मुग्गर'-तिसूल-णाराय-खगहिं ।। १४१ तोखंडिय-सव्वंगो करुणपलावं रुवेह दीणमहो।पभणंति तओ रुट्ठा कि कंदसि रे दुरायारा॥१४२ जोवणमएण मत्तो लोहकसाएण रंजिओ पुव्वं । गुरुवयणं लंधित्ता जूयं रमियो जं आसि' ॥ १४३ तस्स फलमुदयमागयमलं हि रुयणेण विसहरें दुट्ट रोवंतो वि ण छुट्टसि कयावि पुवकयकम्मस्स एवं सोऊण तओ माणसदुक्खं वि से समुप्पण्णं । तो दुविह-दुक्खदड्ढोरोसाइट्ठो इमं भणइ । १४५ जइ वा पुस्वम्मि भवे जूयं रमियं मए मदवसेण । तुम्ह' को अवराहो कओबला जेण मं' हणह॥ एवं मणिए चित्तूण सुठु द्रुहि अग्गिकुंडम्मिापज्जजलम्मिणिहित्तो डज्झइसो १२ अंगमंगेसु ।१४७ तत्तोणिस्सरमाणं दळूण ज्झसरेहि' अहव कुतेहिं । पिल्लेऊण रडतं तत्थेव छुहंति अदयाए ।। १४८ हा मुयह मंमा पहरह पुणो वि ण करोमि एरिसं पावं । दंतेहि अंगुलोओ धरेइ करुणं१४ पुणो रुवइ॥ ण मुयंति तह वि पावा पेच्छइ लीलाए कुणइ जंजोवो'तपावंविलवंतोएहि दुहिणित्थरइ'" कोई उतने ही बडे लोहेके गोलेको शीतवेदनावाले नरकमें फेंके, तो वह धरणीतलको नहीं प्राप्त होकर ही सहसा खड खंड होकर बिखर जायगा । (नरकोंमें ऐसी शीतवेदना)।। १३९ ।। नरकोंमें इस प्रकारको सर्दी और गर्मी क्षेत्रके स्वभाव से होती है । सो व्यसनके फलसे यह जोव ऐसी तीव्र शीत-उष्ण वेदनाको यावज्जीवन सहा करता है ।। १४० ।। उस नरकमें जीवके उत्पन्न होनेके साथ ही उसे देखकर सभी नारकी सहसा-एकदम शक्ति, मुद्गर, त्रिशूल, बाण और खड्गसे प्रहार करने लगते हैं ।। १४१ ।। नारकियोंके प्रहारसे खंडित हो गये हैं सर्व अंग जिसके, ऐसा वह नवीन नारकी दीन-मुख होकर करुण प्रलाप करता हुआ रोता है । तब पुराने नारकी उसपर रुष्ट होकर कहते हैं कि रे दुराचारी, अब क्यों चिल्लाता है ।। १४२ ।। यौवनके मदसे मत्त होकर और लोभकषायसे अनुरंजित होकर पूर्व भवमें तूने गुरुवचनको उल्लंघन कर जुआ खेला है ।। १४३ ।। अब उस पापका फल उदय आया है, इसलिए रोनेसे बस कर, और रे दुष्ट, अब उसे सहन कर । रोनेसे भी पूर्वकृत कर्मके फलसे कभी भी नहीं छूटेगा ।। १४४ ।। इस प्रकारके दुर्वचन सुननेसे उसके भारी मानसिक दुःख भी उत्पन्न होता है। तब वह शारीरिक और मानसिक दोनों प्रकारके दुःखसे दग्ध होकर और रोषमें आकर इस प्रकार कहता है ।। १४५ ।। यदि मैंने पूर्व भवमें मदके वश होकर जुआ खेला है, तो तुम्हारा क्या अपराध किया है, जिसके कारण जबर्दस्ती तुम मुझे मारते हो । १४६ ।। ऐसा कहनेपर अतिरुष्ट हुए वे नारकी उसे पकडकर प्रज्वलित अग्निकुण्डमें डाल देते हैं, जहां पर वह अंग-अंगमें अर्थात् सर्वाङ्ग में जल जाता है ।। १४७ ।। उस अग्निकुण्डसे निकलते हुए उसे देखकर झसरोंसे (शस्त्र-विशेषसे)अथवा भालोंसे छेदकर चिल्लाते हए उसे निर्दयतापूर्वक उसी कुण्डमें डाल देते हैं ।। १४८ । हाय, मुझे छोड दो, मुझ पर मत प्रहार करो, मैं ऐसा पाप फिर नहीं करूंगा, इस प्रकार कहता हुआ वह दांतोंसे अपनी अंगुलियां दबाता है और करुण प्रलाप-पूर्वक पुनः रोता है ।। १४९ ।। तो भी वे पापी नारकी उसे नहीं छोडते हैं । देखो, जीव जो पाप लीलासे-कुतुहल मात्रसे, करता है, उस पापसे विलाप करते हुए वह उपर्युक्त दुःखोको १ ब. मोग्गर-। २ ब. खंडय० । ३ इ. जं मांसि । ४ ब. रुण्णेण । ५ इ. नं, झ. ब. त। ६ ब. कयाई। ७ इ. झ म विसेसमप्पण्णं । ८ इ ब. या। ९ इ तुम्हे, झ. तोम्हि, ब तोहितं । १० इ. महं, म.हं। ११ इ. हणहं । १२ इ. मुद्ध, म मुधा । १३ इ तासे हि, म. ता सही। १४ झ. ब. कलणं । १५ इ. जूवो। १६ ब. एयहं । १७ म. णित्थरो हं हो। प. णिच्जरइ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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