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________________ ४३६ श्रावकाचार-संग्रह सम्वत्थ णिवुणबुद्धी वेसासंगेण चारुदत्तो वि । खइऊण धणं पत्तो दुक्खं परदेसगमणं च ॥ १२८ होऊण चक्कवट्टी चउदहरयणारिओ' वि संपत्तो।मरिऊण बंभदत्तो णिरयं पारद्धिरमणेण ।। १२९ णासावहारतोसेण दंडणं पविऊण सिरिभूई । मरिऊण अदृझाणेण हिंडिओ वीहसंसारे ॥ १३० होऊण खयरणाहो वियक्खणो अद्धचक्कवट्टी विमरिऊण गओ णरयं परिथिहरणेण लंकेसो।१३१ एदे' महाणुभावा दोसं एक्केक-विसण-सेवाओपित्ताजो पुण सत्त वि सेवइ वणिज्जए कि सो।१३२ साकेते सेवंतो सत्त वि वसणाई रुद्ददत्तो वि । मरिऊण गओ गिरयं भमिओ पुण दोहसंसारे ।। १३३ नरकगतिदुःख-वर्णन सत्तण्हं विसणाणं फलेण संसार-सायरे जीवो। पावइ बहुदुक्खं तं संखेवेण वोच्छामि ॥ १३४ अइणिठ्ठरफरसाइं अइदुगंधाइं । असुहावहाई णिच्चं णिरएसुप्पत्तिठाणाई । १३५ तो ते समुप्पण्णो आहारेऊण पोग्गले असुहे । अंतोमुत्तकाले पज्जत्तीओ समाणेइ ॥ १३६ उववायाओ णिवडइ पज्जत्तयओ दंडत्ति महिवी अइकक्खडमसहंतो सहसा उप्पडदि पुण पडइ जई को वि उसिणणरए मेरुपमाणं खिवेइ लोहंडं। ण विपावइ धरणिमपत्तं सडिज्ज'' तं खंडखंडेहि नामक नगर में मांस खानेमें गृद्ध बक राक्षस राज्यपदसे भ्रष्ट हुआ, अपयशसे मरा और नरक गया ॥१२७।। सर्व विषयोंमें निपुण बुद्धि चारुदत्तने भी वेश्याके संगसे धनको खोकर दुःख पाया और परदेशमें जाना पडा ।। १२८ ॥ चक्रवर्ती होकर और चौदह रत्नोंके स्वामित्वको प्राप्त होकर भी ब्रह्मदत्त शिकार खेलनेसे मरकर नरकमें गया ।। १२९ ।। न्यासापहार अर्थात् धरोहरको अपहरण करनेके दोषसे दंड पाकर श्रीभूति आर्तध्यानसे मरकर संसार में दीर्घकाल तक रुलता फिरा ।।१३०।। विचक्षण, अर्धचक्रवर्ती और विद्याधरोंका स्वामी होकर भी लंकाका स्वामी रावण परस्त्रीके हरणसे मरकर नरकमें गया ।।१३१।। ऐसे ऐसे महानभाव एक एक व्यसनके सेवन करने से दु:खकाप्राप्त हुए। फिर जो सातों ही व्यसनों को सेवन करता है, उसके दुःखका क्या वर्णन किया जा सकता है ।। १३२ ।। साकेत नगरमें रुद्रदत्त सातों ही व्यसनोंको सेवन करके मरकर नरक में गया और फिर दीर्घकाल तक संसारमें भ्रमता फिरा ।। १३३ ।। सातों व्यसनोंके फलसे जीव संसार-सागरमें जो भारी दुःख पाता है, उसे मैं संक्षेपसे कहता हूँ ।। १३४ ॥ नरकोंमें नारकियोंके उत्पन्न होने के स्थान अत्यन्त निष्ठुर स्पर्शवाले हैं, पीप और रुधिर आदिक अति दुर्गन्धित और अशुभ पदार्थ उनमें निरन्तर बहते रहते हैं। उनमें उत्पन्न होकर नारकी जीव अशुभ पुद्गलोंको ग्रहण करके अन्तमुंहूर्त कालमें पर्याप्तियोंको सम्पन्न कर लेता है । १३५-१३६ ।। वह नारकी पर्याप्तियोंको पूरा कर उपपादस्थानसे दडेके समान महीपृष्ठपर गिर पडता है । पु:न नरकके अति कर्कश धरातलको नहीं सहन करता हुआ वह सहसा ऊपरको उछलता है और फिर नीचे गिर पडता है । १३७ ।। यदि कोई उष्णवेदनावाले नरकमें मेरु-प्रमाण लोहेके गोले फेंके, तो वह भूतलको नहीं प्राप्त होकर अन्तरालमें ही बिला जायगा अर्थात् गल जायगा । (नरकोंमें ऐसी उष्ण वेदना है)।। १३८ ।। यदि १ ब. -रयणीहिओ । २ ब. गयउ । ३ प. एए। ४ झ. ब. वसण । ५ प साकेए । ६ ब. असुहो । ७ झ. दड त्ति, उदय ति ८ ब. प. महिंवट्टे म. महीविढे ९ इ. विलयम् जत्तंत०, झ विलज्जतं, विलिज्जतं अंत० । म. विलयं जात्यंत । मूला राधना गा० १५६३ । १० झ. तेवर्ड, ब. ते वर्ल्ड । ११ झ. संडेज्ज, म सडेज्ज । मलारा. १५६४ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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