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________________ ४३५ वसुनन्दि-श्रावकाचार अह भुंजइ परमहिलं अणिच्छमाणं बला धरेऊणं । किं तत्थ हवइ सुक्खं पच्चेल्लिउ पावए दुक्खं ।। ११८ अह कावि पावबहुला असई णिण्णासिऊण णियसीलं । सयमेव पच्छियाओ' उवरोहवसेण अप्पाणं ॥ ११९ जइ देइ तह वि तत्थ सुण्णहर-खंडदेउलयमज्झम्मि' । सच्चित्ते भयभीओ सोक्खं कि तत्थ पाउणइ ।। १२० सोऊण कि पि सह सहसा परिवेवमाणसव्वंगो।। ल्हुक्कइ पलाइ पखलइ चउद्दिसं णियइ भयभीओ ॥ १२१ जई पुण केण वि दीसइ णिज्जइ तो बंधिऊण णिवगेहं । चोरस्स णिग्गहं सो तत्थ वि पाउणइ सविसेसं ॥ १२२ पेच्छह मोहविडिओ लोगो क्ण एरिसं दोसं । पच्चक्खं तह वि खलो परिस्थिमहिलसदि" दुच्चित्तो ।। १२३ परलोयम्मि अणंतं दुक्खं पाउणइ इहभवसभुद्दम्मि । परयारा परमहिला तम्हा तिविहेण वज्जिज्जा ॥ १२४ सप्तव्यसनदोष-वर्णन रज्जन्मंसं वसणं बारह संवच्छराणि वणवासो। पत्तो तहावमाणं जूएण जुहिट्ठिलो राया ॥१२५ उज्जाणम्मि रमंता तिसाभिभूया जल त्ति णाऊण पिबिऊण जुण्णमज्जंणट्ठा ते जादवातेण।।१२६ मंसासणेण गिद्धो वगरक्खो एग चक्कणयरम्मि।रज्जाओ पन्भट्ठो अयसेण मुओ गओणरयं।।१२७ नहीं चाहनेवाली किसी पर-महिलाको जबर्दस्ती पकडकर भोगता है, तो वैसी दशामें वह उसमें क्या सुख पाता है ? प्रत्युत दुःखको ही पाता है ।। ११८ ।। यदि कोई पापिनी दुराचारिणी अपने शीलको नाश करके उपरोधके वशसे कामी पुरुषके पास स्वयं उपस्थित भी हो जाय, अपने आपको सौंप भी देवे ॥ ११९ ॥ तो भी उस शून्य गृह या खंडित देवकुल के भीतर रमण करता हुआ वह अपने चित्तमें भय-भीत होनेसे कहाँ पर क्या सुख पा सकता है ? ।। १२० ।। वहाँ पर कुछ भी जरासा शब्द सुनकर सहसा थर-थर काँपता हुआ इधर-उधर छिपता है, भागता है, गिरता है और भय-भीत हो चारों दिशाओंको देखता है।।१२१।। इसपर भी यदि कोई देख लेता है तो वह बांधकर राज-दरबारमें लाया जाता है और वहांपर वह चोरसे भी अधिक दंडको पाता है ।।१२२।। मोहकी विडम्बनाको देखो कि परस्त्री-मोहसे मोहित हुए खल लोग इस प्रकारके दोषों को प्रत्यक्ष देखकर भी अपने चित्तमें परायी स्त्रीकी अभिलाषा करतें हैं ।।१२३॥ परस्त्री-लम्पटी परलोकमें इस संसारसमुद्र के भीतर अनन्त दुःखको पाता है। इसलिए परिगृहीत या अपरिगृहीत परस्त्रियोंको मन वचन कायसे त्याग करना चाहिये ॥१२४॥ जूआ खेलनेसे युधिष्ठिर राजा राज्यसे भ्रष्ट हुए, बारह वर्ष तक वनवासमें रहे तथा अपमानको प्राप्त हुए ॥ १२५ ॥ उद्यानमें क्रीडा करते हुए प्याससे पीडित होकर यादवोंने पुरानी शराबको 'यह जल है' ऐसा जानकर पिया और उसीसे वे नष्ट हो गये ।। १२६ ।। एकचक्र १ झ. सयमेवं । २ ध.-प्रस्थिता। ३ झ. मज्झयारम्मि। ४ झ. म. भयभीदो। ५ झ. ब. भो चित्तं । ६ झ. ब. तो। ७ म. लुद्धो। ८ ब. एय० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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