SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 460
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४४१ वसुनन्दि-श्रावकाचार तो खिल्लविल्लजोएण कह वि पंचिदिएसु उववण्णो । तत्थ वि असंखकालं जोणिसहस्सेसु परिभमइ ॥ १७९ छेयण-भेयण-ताडण-तासण-णिल्लंछणं तहा दमणं । णिक्खलण-मलण-दलणं पउलण उक्कत्तणं चेव' ।। १८० २ बंधण-भारारोवण लंछण पाणण्णरोहणं सहणं । सोउण्ह-भुक्ख-तण्हादिजाण तह पिल्लयविओय' ॥ १८१ इच्चेवमाइ बहुयं दुक्खं पाउणइ तिरियजोणीए । विसणस्स फलेण जदो वसणं परिवज्जए तम्हा ।। १८२ मनुष्यगतिदुःख-वर्णन मणयत्ते वि य जीवा दुक्खं पावंति बहुवियप्पेहि । इटाणिठेसु सया वियोय-संयोयज तिव्वं ॥ १८३ उप्पण्णपढमसमयम्हि कोई जणणीइ छंडिओ संतो । कारणवसेण इत्थं सीउण्ह-भुक्ख-तण्हाउरो मरई ॥ १८४ बालत्तणे वि जीवो माया-पियरेहि कोवि परिहोणो उच्छिठें भक्खंतो जीवइ दुक्खेण परगेहे।।१८५ यदि कदाचित् खिल्लविल्ल योगसे* पंचेन्द्रियों में उत्पन्न हो गया, तो वहां भी असंख्यात काल तक हजारों योनियोंमें परिभ्रमण करता रहता है ॥ १७९ ।। तिर्यञ्च योनिमें छेदन, भेदन, ताडन, त्रासन, निलांछन ( बधिया करना ), दमन, निक्खलन ( नाक छेदन ), मलन, दलन, प्रज्वलन, उत्कर्तन, बंधन, भारारोपण, लांछन ( दागना), अन्न.पान-रोधन, तथा शीत, उष्ण, भूख, प्यास आदि बाधाओंको सहता है, और पिल्लों (बच्चों) के वियोग-जनित दुखको भोगता है। ।। १८०१८१ ।। इस प्रकार व्यसनके फलसे यह जीव तिर्यञ्च-योनिमें उपर्युक्त अनेक दुःख पाता है, इसलिए व्यसनका त्याग कर देना चाहिए ॥ १८२ ।। मनुष्य भवमें भो व्यसनके फलसे ये जीव सदैव बहुत प्रकारसे इष्ट-अनिष्ट पदार्थों में वियोग-संयोगसे तीव्र दुःख पाते हैं ।। १८३ ।। उत्पन्न होने के प्रथम समय में ही कारणवशसे.माताके द्वारा छोडे गये कितने ही जीव इस प्रकार शीत, उष्ण, भूख और प्याससे पीडित होकर मर जाते हैं ।। १८४ ।। बालकपन में ही माता-पितासे रहित कोई जीव १ मूलारा० गा० १५८२ । २ मूलारा० गा० १५८३ । ३ स्तनन्धयवियोगमित्यर्थः । ४.ध. प. जाईए । ५ झ. ब. मणुयत्तेण । । मण्यत्तणे । 8 इतः पूर्व झ. ब. प्रत्योः इमे गाथेऽधिके उपलभ्यतेतिरिएहिं खज्जमाणो दुटुमणस्सेहिं हम्ममाणो वि । सम्वत्थ वि संतट्ठो विसहदे भीमं ॥१॥ अण्णोण्णं खज्जता तिरिया पावंति दारुणं दुक्ख । माया वि जत्थ भक्खदि अण्णो को तत्थ राखंदि॥२॥ तिर्यचोंके द्वारा खाया गया. दृष्ट शिकारी लोगोंके द्वारा मारा गया और सब ओरसे संत्रस्त होता हुआ भय-जनित भयंकर दुःख को सहता है ॥१॥ तिथंच परस्परमें एक दूसरेको खाते हुए दारुण दुःख पाते हैं। जिस योनिमें माता भी अपने पत्रको खा लेती है, वहां दुसरा कौन रक्षा कर सकता है ।। २ ॥ -स्वामिकाति० अन०, गा० ४१-४२ * भाड़ में भुनते हुए धान्यमें से दैववशात् जैसे कोई एक दाना उछलकर बाहिर आ पड़ता है उसी प्रकार दैववशात् एकेन्द्रिय-विकलेन्द्रियोंमें से कोई एक जीव निकलकर पञ्चेन्द्रियोंमें उत्पन्न हो जाता है, तब उसे खिल्लविल्ल योगसे उपन्न होना कहते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy