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________________ महापुराणान्तर्गत-श्रावकधर्म-वर्णन विशेषविषयाः मन्त्राः क्रियासूक्तासु दशिताः । इतः प्रभृति चाभ्यूह्यास्ते याम्नायमग्रजः ॥२१७ मन्त्रानिम न् यथायोगं य: क्रियासु नियोजयेत्।सलोके सम्मति याति युक्ताचारो द्विजोत्तमः ॥२१८ क्रियामन्त्रविहीनास्तु प्रयोक्तृणां न सिद्धये । यथा सुकृतसन्नाहाः सेनाध्यक्षा विनायकाः ।। २१९ ततो विधिममुं सम्यगवगम्य कृतागमः । विधानेन प्रयोस्तव्या: क्रियामन्त्रपुरस्कृताः ।। २२० वसन्ततिलकावृत्तम् इत्थं स धर्मविजयी भरताधिराजो, धर्मक्रियासु कृतधी पलोकसाक्षि । ____ तान् सुव्रतान् द्विजवरान् विनियम्य सम्यक्, धर्मप्रियः समसृजत् द्विजलोकसर्गम्।।२२१ __ मालिनी इति भरतनरेन्द्रात् प्राप्तसत्कारयोगा व्रतपरिचयचारूदारवृत्ता: श्रुताढया: । जिनवृषममतानुव्रज्यया पुज्यमाना जगति बहुमतास्ते ब्राह्मणा: ख्यातिमीयुः ॥२२२ वृतस्थानथ तान विधाय समवानिक्ष्वाकुचूडामणिः, जैने वर्त्मनि सुस्थितान् द्विजारान् सम्मानयन् प्रत्यहम् । स्वं मेने कृतिन मुदा परिगतां स्वां सृष्टिमुच्च. कृतां, पश्यन् कः सुकृती कृतार्थपदवी नात्मानमारोपयेत् ।। २२३ गिक मंत्र कहते है।।२१६। इनके अतिरिक्त जो विशेष मंत्र हैं,वे ऊपर कहीं हुई क्रियाओंमे बतला आये हैं? अबव्रतचर्यासे आगेके जो मंत्र है,वे अग्रजन्मा द्विजोंको आम्नायके अनुसार स्वयं ही समझ लेना चाहिए ।।२१७॥ जो इन मंत्रोको क्रियाओंमें यथायोग्य रूपसे उपयोग करता है, वह योग्य आचरण करनेवाला उत्तम द्विज लोकमें सन्मानको प्राप्त होता है।।२१८॥जिस प्रकार अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित सेनाध्यक्ष विना नायक (स्वामी या राजा) के कुछ भी नहीं कर सकते हैं,उसी प्रकार मंत्र-विहीन क्रियाएँ भी प्रयोग करने वाले पुरुषों की किसी भी कार्य की सिद्धि करनेके लिये समर्थ नहीं है।२१९॥इसलिए शास्त्रोंका अभ्यास करनेवाले द्विजोंको यह सब विधि भली भांतिसे जानकर मंचोच्चारणके साथ क्रियाएं विधिपूर्वक करनी चाहिए ॥२२०।। इस प्रकार उस धर्मविजयी धर्मप्रिय, कृतबुद्धि भरत महाराजने राजा लोगोंकी साक्षीपूर्वक सद्-वृत-धारक उत्तम द्विजोंको सम्यक् प्रकारसे नियमन, करके ब्राह्मण लोगोंकी सृष्टि रची' अर्थात् ब्राह्मणवर्ण की स्थापना की ॥२२१।। इस प्रकार भरतनरेन्द्रसे सम्मान-सत्कार पानेवाले, व्रतोंके अभ्याससे सुन्दर आचारके धारक,शास्त्र-ज्ञानसे सम्पन्न, श्री वृषभजिनेन्द्रके मतानुसार धारण की गई दीक्षासे पूज्यमान वे ब्राह्मण जगत्में सर्वजनोंसे सम्मानको प्राप्त कर प्रसिद्धिको प्राप्त हुए।।२२२!।तदनन्तर इक्ष्वाकुकुल चूडामणि पूज्य वह सम्राट् भरत जैनमार्ग में सम्यक् प्रकार से अवस्थित और व्रतोंका भलीभांतिसे पालन करनेवाले उन श्रेष्ठ ब्राह्मणोंकी सृष्टि करके प्रतिदिन उनका सम्मान करते हुए अपने आपको धन्य मानने लगे, सो ठीक है, क्योंकि ऐसा कौन सुकृती है, जो आनन्दसे परिणत एवं उत्कृष्टताको प्राप्त अपनी सृष्टि को देखता हुआ अपने आपको कृतकृत्य न माने? अर्थात् अपनी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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