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________________ महापुराणान्तर्गत-श्रावकधर्म-वर्णन परमादिपदान्नेत्र इत्यस्माच्च नमो नमः । सम्यग्दृष्टि पदं चान्ते योध्यन्तं द्विः प्रयज्यताम् ॥ ७४ द्विः स्तां त्रिलोकोवजयधर्ममूर्तिपदे तत: । धर्मनेमिपदं वाच्यं द्विः स्वाहेति ततः परम् ।। ७५ काम्यमन्त्रमतो ब्रूयात्पूर्ववद्विधिवद्विजः । काम्यसिद्धिप्रधाना हि सर्वे मन्त्राः स्मृता बुधः ।। ७६ चणिः- सत्यजाताय नमः, अर्हज्जाताय नमः, परमजाताय नमः परमाहताय नमः, परमरूपाय नमः परमतेजसे नमः, परमगणाय नमः,परमस्थ नाय नमः, परमयोगिने नमः परमभाग्याय नमः, परमर्द्धये नमः, परमप्रसादाय नमः, परमकाङ्क्षिताय नमः परमविजयाय नमः, परमविज्ञानाय नमः, परमदर्शनाय नमः: परमवीर्याय नमः परमसुखाय नम सर्वज्ञाय नमः. अहते नमः. परमेष्ठिने नमोनमः परमनेत्रं नमोनमः. सम्यग्दष्टे, सम्यग्दृष्टे त्रिलोकविजय धर्ममूर्ते धर्ममूर्ते, धर्मनेमे धर्मनेमे स्वाहा । सेवाफल षट्परम स्थान भवतु अपमृत्युविनाशनंभवतु. समाधिमरणं भवतु । एते तु पीठिकामन्त्रा: सप्त ज्ञेया द्विजोत्तमैः । एतैः सिद्धार्चनं कुर्यादाधानादिक्रियाविधौ ।। ७७ क्रियामन्त्रास्त एते स्युराधानादिक्रियाविधौ सूत्रे गणधरोद्धायें यान्ति साधनमन्त्रताम् ।। ७८ सन्ध्यास्वग्नित्रये देवपूजने नित्यकर्मणि । भवन्त्याहुतिमन्त्राश्च त एते विधिसाधिताः ।। ७९ सिद्धार्चासन्निधौ मन्त्रान जपेदष्टोत्तरं शतम । गन्धपुष्पाक्षता_दिनिवेदनपुरःसरम् ॥ ८० सिद्धविद्यस्ततो मन्त्ररेभिः कर्म समाचरेत् । शुक्लवासाः शुचिर्यज्ञोपवीत्यव्यग्रमानसः ।। ८१ त्रयोऽग्नयः प्रणेयाः स्युः कर्मारम्भे द्विजोत्तमैः । रत्नत्रितयसङ्कल्पादग्नीन्द्रमुकुटोद्भवा: ।। ८२ तीर्थकृदगणभच्छेषकेवल्यन्तमहोत्सवे । पूजाङ्गत्वं समासाद्य पवित्रत्वमुपागता: ।। ८३ (सर्वज्ञके लिए नमस्कार हो), अर्हते नमः' (अरहन्तदेवके लिए नमस्कार हो) और परमेष्ठिनेनमोनम (परमेष्ठीके लिए बार-बार नमस्कार हो) ये मंत्र बोले ।।७३।।तत्पश्चात् 'परमनेत्रे नमो नमः' (उत्तम नेताके लिए बार-बार नमस्कार हो),यह मंत्र बोले। पुनः सम्बोधनान्त सम्यग्दृष्टि पद दो बार प्रयोग करे।।७४।इसी प्रकार त्रिलोकविजय,धर्ममूति और धर्मनेमि पद भी चतुर्थीविभक्तिके साथ दो-दोबार बोलकर अन्तमें स्वाहा शब्द कहे । यथा- 'सम्यग्दृष्टे सम्यग्दृष्टे,त्रिलोकविजय त्रिलोकविजय,धर्ममूर्ते-धर्ममूर्ते,धर्मनेमे धर्मनेमे स्वाह ' (हे सम्यग्दृष्टि, हे त्रिलोकविजयी, हे धर्ममूत्ति, हे धर्मप्रवर्तक, मैं तेरे लिए यह समर्पण करता हूँ ॥७५।। इसके पश्चात् द्विज विविधत् पूर्वके समान काम्यमंत्र बोले,क्योंकि विद्वज्जनों ने सभी मंत्रोंको अभीष्ट सिद्धि-प्रधान माना हैं ।।७६।।इन सर्व परमेष्ठी मंत्रोंका संग्रह मूलमें दिया गया हैं। उत्तम ब्राह्मणोंको ये उपर्युक्त सात पीठिकामंत्र जानना चाहिए। गांधानादि क्रियाओंकी विधि करते समय इन मंत्रोंसे सिद्ध भगबान्का पूजन करे॥७७।। गर्भाधानादि क्रियाओंकी विधि करने में ये पीठिकामंत्र क्रियामंत्र कहलाते हैं और गणधर-प्रतिपादित सूत्र में ये ही साधनमंत्रपनेको प्राप्त हो जाते हैं ।।७.८।। विधिपूर्वक सिद्ध किये हुए ये ही मंत्र तीनों सन्ध्याओं के समय तीनों अग्नियोंमें देव-पूजनरूप नित्यकर्म करते समय आहुतिमंत्र कहे जाते हैं ॥७९॥ सिद्ध-प्रतिमाके समीप गन्ध,पुष्प,अक्षत,और अर्घ आदि समर्पण कर एक सौ आठ बार इन मंत्रोंका जप करना चाहिए १८०॥ तत्पश्चात् विद्याकी सिद्धिको प्राप्त, श्वेत वस्त्र और यज्ञोपवीतका धारक द्विज निराकुल चित्त होकर इन मंत्रोंके द्वारा अन्य क्रियाओंको करे ।।८१।। गर्भाधानादि क्रियाओं के प्रारम्भ में उत्तम द्विज रत्नत्रयके संकल्प से अग्निकुमार देवोंके इन्द्रके मुकुटसे उद्भूत तीन अग्नियोंको उत्पन्न करे।।८२॥ये तीनों ही महा अग्नियाँ तीर्थकर, गणधर और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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