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श्रावकाचार-संग्रह
कुण्डत्रये प्रणेतव्यास्त्रय एते महाग्नयः । गार्हपत्याहवनीयदक्षिणाग्निप्रसिद्धयः ॥ ८४ अस्मिन्नग्नित्रये पूजां मन्त्रैः कुर्वन् द्विजोत्तमः । आहिताग्निरिति ज्ञेयो नित्येज्या यस्य सद्मनि ॥८५ हविपाके च धूपे च दीपोद्बोधनसंविधो । वन्हीनां विनियोगः स्यादमीषां नित्यपूजने ॥ ८६ प्रयत्नेनाभिरक्ष्यं स्यादिदमग्नित्रयं गृहे । नैव दातव्यमन्येभ्यस्तेऽन्ये ये स्युरसंस्कृताः ॥ ८७ न स्वतोऽग्नेः पवित्रत्वं देवतारूपमेव वा । किन्त्वहं द्दिव्यमूर्ती ज्यासम्बन्धनात् पवनोऽनलः ॥ ८८ ततः पूजाङ्गतामस्य मत्वार्चन्ति द्विजोत्तमाः । निर्याण क्षेत्रपूजावत्तत्पूजाडतो न दुष्यति ॥ ८९ व्यवहार नयापेक्षा तस्येष्टा पूज्यता द्विजैः । जैनैरध्यवहार्योऽयं नयोऽद्यत्वेऽग्रजन्मभिः ।। ९० साधारणास्त्विमे मन्त्राः सर्वत्रैव क्रिय विधौ । यथा सम्भवमुन्नेष्ये विशेषविषयाश्च तान् ॥९१ गर्भाधानमन्त्राः -
सज्जातिभागी भव सद्गृहिभागी भवेति च । पदद्वयमुदीर्यादौ पदानीमान्यतः पठेत् ॥ ९२ आदी मुनीन्द्रा भागीति भवेत्यन्ते पदं वदेत् । सुरेन्द्रभागी परमराज्यभागीति च द्वयम् ।। ९३ आर्हन्त्यभागी भवति पदमस्मादनन्तरम् । ततः परमनिर्वाणभागी भव पदं भवेत् । ९४ आधाने मन्त्र एषः स्यात् पूर्वमन्त्रपुरःसरः । विनियोगश्च मन्त्राणां यथाम्नायं प्रदर्शितः ॥ ९५ चूणि:- सज्जातिभागी भव, सद्गृहिभागी भव, मुनीन्द्रभागी भव, सुरेन्द्रभागी भव, परमराज्यभागी भव, आर्हन्त्यभागी भव, परमनिर्वाण भागी भव ।
( आधान मन्त्रः ) सामान्यकेवलीके अन्तिम निर्वाणमहोत्सव में पूजाका अंग बनकर पवित्रता को प्राप्त हुई है ॥८३॥ गार्हपत्य, आहवनीय और दक्षिणाग्नि नाम से प्रसिद्ध तीनों अग्नियों को तीन कुण्डों में स्थापित करना चाहिए || ८४ ।। इन तीनों प्रकारकी अग्नियों में मंत्रोंके द्वारा पूजा करने वाला पुरुष द्विजोत्तम कहलाता हैं और जिसके घर इस प्रकारकी पूजा नित्य होती हैं वह आहिताग्नि या अग्निहोत्री द्वाह्मण जानना चाहिए । ८५ ।। नित्य पूजन करते समय इन तीनों प्रकारकी अग्नियोंका विनियोग क्रमशः नैवेद्यके पकाने में, धूपखेने में और दीपक जलाने में होता हैं ॥ ८६ ॥ बडे प्रयत्नके साथ इन तीनों अग्नियोंकी घरमें रक्षा करे और जो क्रिया-संस्कारसे रहित है, ऐसे अन्य लोगों को यह अग्नि कभी नहीं देना चाहिए ॥ ८७ ॥ अग्निमें स्वतः पवित्रता नहीं है और न वह देवतारूप ही हैं । किन्तु अरहन्तदेवकी दिव्यमूत्र्तिकी पूजाके सम्बन्धसे अग्नि पवित्र मानी गई हैं ||८८ || अतएव द्विजोत्तम लोक इसे पूजाका अंग मानकर इसकी पूजा करते है और इसी कारण से निर्वाणक्षेत्रकी पूजाके समान अग्निकी पूजा करनेमें कोई दोष नहीं है || ८९ ॥ | व्यवहारनय की अपेक्षा द्विजोंको अग्निकी पूज्यता इष्ट हैं, इसलिए द्विजन्मा जैनों को यह नय आज के समय में व्यवहार करने के योग्य है ।। ९० ।। ये ऊपर कहे हुए सर्वमंत्र सभी क्रियाविधिमें साधारण हैं । अब आगे विशेष क्रिया-विषयक मंत्रोंको यथासम्भव कहता हूँ ॥९१॥ गर्भधान क्रियाके मंत्र इस प्रकार हैं - यह गर्भस्थ जीव 'सज्जाति भागी भव' (उत्तम after धारण करनेवाला हो), 'सद्- गृहिभागी भव' ( सद् गृहस्थ पदका धारक हो ), पहले इन दोनों मंत्रपदोंको बोलकर तत्पश्चात् इन मंत्रपदों को पढे ||२|| प्रथम 'मुनीन्द्रभागी भव' ( महामुनिपदको प्राप्त करनेवाला हो ) यह पद बोले । तत्पश्चात् 'सुरेन्द्रभागी भव' (इन्द्रपदका भोक्ता हो), तथा 'परमराज्यभावी भव' (उत्कृष्टराज्यका स्वामी हो ) इन पदोंको वोले । ९३ ।। तदनन्तर 'आर्हन्त्यभागी भव' (अर्हन्तपदका धारक हो ) यह पद पढे । तत्पश्चात् 'परमनिर्वाणभागी भव' ( परम मोक्षका पानेवाला हो ) यह पद बोले ||१४|| गर्भाधान क्रियामें पूर्वोक्त पीठिका मंत्रों के साथ
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