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________________ ४० श्रावकाचार-संग्रह - पाणिग्रहणदीक्षायां नियुक्तं तद्वधूवरम् । आसप्ताहं चरेद् ब्रह्मवतं देवाग्निसाक्षिकम् ॥१३१ क्रान्त्वा स्वस्योचितां भूमि तीर्थभूमीविहत्य च । स्वगृहं प्रविशेद भूत्या परया तद्वधूवरम् ।।१३२ विमुक्तकडकणं पश्चाद् स्वगृहे शयनीयकम् । अधिशय्य यथाकालं भोगाङ्गरुपलालितम् ॥१३३ सन्तानार्थमतावेव कामसेवां मिथो भजेत् । शक्तिकालव्यपेक्षोऽयं मोऽशक्तेष्वतोऽन्यथा ॥१३४ (इति विवाहक्रिया । ) एवं कृतविवाहस्य गार्हस्थ्यमनुतिष्ठतः । स्वधर्मानतिवृत्यर्थ वर्णलाभमतो अवें ।। १३५ ऊदमार्योऽप्यय ताववस्वतन्त्रो गुरोगुहे । ततः स्वातन्त्र्यसिद्धयर्थवर्णलाभोऽस्य वर्णितः ।।१३६ . गुरोरनुज्ञया लब्धधनधान्यादिसम्पदः । पृथक्कृतालयस्यास्य वृत्तिर्वर्णाप्तिरिष्यते ।।१३७ तदापि पूर्ववत्सिद्धप्रितमानर्चमग्रतः । कृत्वाऽस्योपासकान् मुख्यान साक्षीकृत्यार्पये धनम् ।।१३८ धनमेतदुपादाय स्थित्वाऽस्मिन् स्वगृहे पृथक् । गृहिधर्मस्त्वया धार्यः कृत्स्नो दानादिलक्षणः ॥१३९ यथाऽस्मत्पितवत्तेन धनेनास्माभिरजितम् । यशोधर्मश्च तद्वत्त्वं यशोधार्मानुपाज॑य ।।१४० इत्येवमनुशिष्यनं वर्णलामे नियोजयेत् । सदारः सोऽपि तं धधर्म तथानष्ठातुमर्हति ॥१४१ (इति वर्णलाभक्रिया) लब्धवर्णस्य तस्येति कुलचर्याऽनुकीय॑ते । सात्विज्यादत्तिवातादिलक्षणा प्राप्रपञ्चिता ॥१४२ अथवा एक अग्नि उत्पन्न की है, उसकी प्रदक्षिणाएँ देकर वर-वधूको समीप ही बैठना चाहिए ॥१३० । इस पाणिग्रहण (विवाह) की दीक्षामें नियुक्त उन वर-वधूको देव और अग्निकी साक्षी पूर्वक सात दिन तक ब्रह्मचर्यव्रत धारण करना चाहिए ।। १३१ ।। पुनः अपने योग्य किसी देशमें परिभ्रमण कर, अथवा तीर्थभूमियों पर विहार करके वर और वधु परम विभूतिके साथ अपने घरमें प्रवेश करें।।१३२॥तत्पश्चात् कंकण-बंधनसे विमुक्त हुए वे वर-वधू अपने घरमें भोगोपभोगके साधनोंसे सुशोभित शय्यापर योग्यकालमें शयन कर केवल सन्तान प्राप्तिके लिए ही ऋतुकालमें परस्पर काम-सेवन करें। काम-सेवनका यह क्रम शक्ति और समयकी अपेक्षा रखता है। अतः अशक्त स्त्री-पुरुषको इससे विपरीत करना चाहिए, अर्थात्, ब्रह्मचयंसे रहना चाहिए ॥१३३-१३४। यह सत्तरहवी वैवाहिकी क्रिया है । इस प्रकारसे विवाह करनेवाले और गृहस्थ धर्मका पालन करनेवाले पुरुषके लिए अपने धर्मका उल्लंघन न करे, इस कारण अब वर्णलाभ क्रियाको कहते हैं ।।१३५।। विवाहित भी यह पुरुष जब तक पिताके घरमें रहता है, तब तक वह स्वतंत्र नहीं है, अतः स्वतंत्रता प्राप्त करनेके लिए यह वर्णलाभ क्रिया वर्गन की गई हैं ।।१३६।। पिताकी अनुज्ञासे जिसे धन-धान्यादि सम्पदाएँ प्राप्त हो गई है और रहनेके लिए जिसे आलय भी पृथक् मिल गया हैं, ऐसे पुरुषकी स्वतंत्र आजीविकामें लगनेंको वर्णलाभ कहते हैं ।।१३७।। इस क्रियामें भी पूर्वके समान सर्वप्रथम सिद्धप्रतिमाकी पूजन करके पिता अन्य प्रमुख श्रावकोंको साक्षी बनाकर पुत्रको अपना धन अर्पण करे और कहे कि हे वत्स, तुम इस धनको लेकर इस अपने घरमें पृथक रहो और तुम्हें दान-पूजा आदि करते हुए पूर्ण गृहस्थधर्म धारण करना चाहिए ।। १३.८-१३९ ।। जिस प्रकार हमारे पिताके द्वारा दिये गये धनसे हमने यश और धर्मका उपार्जन किया है, उसी प्रकार तुम भी गृहस्थ धर्मको पालते हुए यश और धर्मका उपार्जन करो ।।१४०।। इस प्रकारसे पुत्रको उचित शिक्षा देकर पिता उसे वर्णलाभसे नियुक्त करे, अर्थात् अपनी आजीविकाके उपार्जनके लिए स्वतंत्र कर देवे । पुनः उस पुत्रको भी अपनी स्त्रोके साथ पिता-द्वारा बतलाये गये मार्गसे गृहस्थधर्मका पालन करना चाहिए ॥१४१।। यह अठारहवीं वर्णलाभ क्रिया हैं । वर्णलाभ क्रियाके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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