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________________ महापुराणान्तर्गत श्रावकधर्म-वर्णन ४१ विशुद्धा वृत्तिरस्यार्यषट् कर्मानुप्रवर्तनम् । गृहिणां कुलचर्येष्टा कुलधर्मोऽप्यो मतः ।। १४३ ।। ( इति कुलचर्या क्रिया । ) कुलचर्यामनुप्राप्तो धर्मे दाढर्घमथोद्वहन् । गृहस्थाचार्य भावेन संश्रयेत् स गृहीशिताम् ।। १४४ ॥ ततो वर्णोत्तमत्वेन स्थापयेत् स्वां गृहीशिताम् । शुभवृत्तिक्रियामन्त्र विवाहै: सोत्तरक्रियैः ।। १४५ ।। अनन्यसदृशैरेभिः श्रुतवृत्तिक्रियादिभिः । स्वमुन्नत नयन्नेष तदाऽर्हति गृही शिताम् ।। १४६ ।। वर्णोत्तमो महादेवः सुश्रुतो द्विजसत्तमः । निस्तारको ग्रामयतिः मानार्हश्चेति मानितः ।। १४७ ॥ ( इति गृहीशिता । ) सोऽनुरूपं ततो लब्ध्वा सूनुमात्मभरक्षमम् । तत्रारोपितगार्हस्थ्यः सन प्रशान्तिमतः श्रयेत् ॥ १४८ ॥ ॥ विषयेष्वनभिष्वङ्गो नित्यस्वाध्यायशीलता । नानाविधोपवासैश्च वृत्तिरिष्टा प्रशान्तता ॥ १४९ ॥ ( इति प्रशान्तिः । ) ततः कृतार्थमात्मानमन्यम नो गृहाश्रमे । यदोद्यतो गृहत्यागे तदाऽस्यैष क्रियाविधिः ॥ १५० ॥ सिद्धाचंनां पुरस्कृत्य सर्वानाहूय सम्मतान् । तत्साक्षि सूनवे सर्व निवेद्यातो गृहं त्यजेत् ॥ १५१ ।। कुलत्रमस्त्वया तात सम्पाल्योऽस्मत्परोक्षतः । त्रिधा कृतं च नो द्रव्यं त्वयेत्थं विनियोज्यताम् । १५२ ॥ द्वारा स्वतंत्र वृत्ति करनेवाले उस गृहस्थ के लिए कुलचर्या नामकी क्रिया कही जाती है । पूजा, दत्ति वार्ता आदि लक्षणवाली इस कुलचर्याका वर्णन पहले विस्तारसे कह आये हैं ।। १४२ ।। विशुद्धरीतिसे आजीविका करना, तथा आर्य पुरुषोंके करने योग्य देवपूजा आदि षट् आवश्यक कर्माका पालना गृहस्थोंकी कुलचर्या मानी गई हैं और यही कुलधर्म कहलाता हैं ।। १४३ ।। यह उन्नीसवीं कुलचर्या । तत्पश्चात् कुलचर्याको प्राप्त वह श्रावक धर्म में दृढताको धारण करता हुआ गृहस्थाचार्य के रूपसे गृहशिताको स्वीकार करे, अर्थात् उसे गृहस्थाचार्य बनकर सब गृहस्थोंका स्वामी बनना चाहिए ।। १४४ ।। गृहस्थोंका स्वामी बननेके लिए आवश्यक है कि वह अपने आपको उत्तम वर्णवाला मान कर अपने में शुभ वृत्ति, क्रिया, मंत्र, विवाह आदि अनुत्तर या अनुपम क्रियाओंके द्वारा गृहीशिता स्थापित करे ।। १४५ ॥ । अन्य गृहस्थोंमें नही पाई जानेवाली पवित्र वृत्ति, क्रिया और श्रुतज्ञानकी प्राप्ति आदिके द्वारा अपनी उन्नति करता हुआ यह गृहस्थ गृहीशिता को पाने के लिए योग्य होता हैं ।। १४६ ।। गृहीशिता, गृहस्थ-स्वामी, या गृहस्थाचार्य के पदको प्राप्त करनेवाला वह श्रावक वर्णो = तम ( तीनों वर्णो मे श्रेष्ठ) महीदेव (भूदेव ) सुश्रुत ( उत्तम शास्त्रज्ञ ) द्विजसत्तम ( श्रेष्ठब्राह्मण ) निस्तारक (संसारसे पार उतारनेवाला) ग्रामपति ( नगर स्वामी) और सम्माननीय आदि नामों के द्वारा लोगों से सम्मानको प्राप्त होता है ।।१४७।। यह बीसवीं गृहीशिता किया हैं । तदनन्तर वह गृहस्थाचार्य अपने अनुरूप और अपने निजके गृह-भार सँभालनेमे समर्थ पुत्रको पाकरके उस पर गृहस्थीका भार समर्पण करता हुआ स्वयं परम शान्तिवृत्तिका आश्रय लेवे ।। १४८ ।। पंचेन्द्रियोंके विषयोंमे आसक्ति नही रखना, नित्य स्वाध्याय करना और नाना प्रकारके उपवास करते हुए समय बिताना प्रशान्तवृत्ति कहलाती हैं ।। १४९ ।। यह इक्कीसवीं प्रशान्तिक्रिया हैं । इस प्रकार प्रशांतवृत्तिको पालन करता हुआ और गृहाश्रममें अपनेको कृतार्थ मानता हुआ वह श्रावक जब गृहत्यागके लिए उद्यत होता हैं, तब उसके यह कही जानेवाली गृहत्यागक्रिया होती हैं ।। १५० ।। इस क्रिया में सिद्ध-पूजाको सर्व प्रथम करके अपने सर्व इष्टजनोंको बुलाकर उनकी साक्षीपूर्वक अपने पुत्र के लिए सब कुछ समर्पण कर उसे घरका त्याग कर देना चाहिए । १५१ ।। उस समय अपने ज्येष्ठ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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