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________________ महापुराणान्तर्गत श्रावकधर्म-वर्णन ३९ शब्दविद्याऽर्थशास्त्रावि चाध्येयं नास्य दुष्यति । सुसंस्कारप्रबोधाय वैयात्यख्यातयेऽपि च ।। ११९ ज्योतिर्ज्ञानमथच्छन्दो ज्ञानं ज्ञानं च शाकुनम् । सङ्ख्याज्ञानमितीदं च तेनाध्येयं विशेषतः ।। १२० ( इति व्रतचर्या) ततोsस्याधीतविद्यस्य व्रतवृत्यवतारणम् । विशेषविषयं तच्च स्थितस्योत्सगिके व्रते ।। १२१ मधुमांसपरित्यागः पञ्चोदुम्बरवर्जनम् । हिंसादिविर तिश्चास्य व्रतं स्यात् सार्वकालिकम् ।। १२२ व्रतावतरणं चेदं गुरुसाक्षी कृतार्चनम् वत्सराद् द्वादश। दूध्वमथवा षोडशात् परम् ।। १२३ कृतद्विजार्चनस्यास्य व्रतावतरणोचितम् । वस्त्राभरणमात्यादिग्रहणं गुर्वनुज्ञया ।। १२४ शस्त्रोपजीविवग्यंश्चेद् धारयेच्छास्त्रमप्यदः । स्ववृत्तिपरिरक्षार्थ शोभार्थ चास्य तग्रहः ।। १२५ भोगब्रह्मव्रतादेवमवतीर्णो भवेत्तदा । कामब्रह्मव्रतं त्वस्य तावद्यावत्क्रियोत्तरा ।। १२६ (इति व्रतावतरणम् ) ततोऽस्य गुर्वनुज्ञानादिष्ा वैवाहिकी क्रिया । वैवाहिके कुले क न्यामुचितां परिणेष्यतः ।। १२७ सिद्धः न विधिसम्यक् निर्वर्त्य द्विजसत्तमाः । कृताग्नित्रय सम्पूजाः कुर्युस्तत्साक्षितां क्रियाम् ।। १२८ पुण्याश्रमे क्वचित् सिद्धप्रतिमाभिमुखं तयोः । दम्पत्योः परया भूत्या कार्य: पाणिग्रहोत्सवः ।। १२९ वैद्य प्रणीतमग्नीनां त्रयं द्वयमर्थककम् । ततः प्रदक्षिणीकृत्य प्रसज्य विनिवेशनम् ॥ १३० पढना चाहिए ।। ११८|| तत्पश्चात् संस्कारों को जागृत करनेके लिए तथा विद्वत्ता प्राप्त करने के लिए शब्द विद्या (व्याकरण) अर्थशास्त्र, न्यायशास्त्र आदिका अध्ययन उसके लिए दोषकारक नहीं है ।। ११९ ।। इसके पश्चात् उसे विशेष रूपसे ज्योतिर्ज्ञान, छन्दोज्ञान, शाकुनज्ञान, संख्याज्ञान, बढानेके लिए तद्विषयक शास्त्रोंको भी पढना चाहिए ।। १२० ।। यह पन्दरहवीं, व्रतचर्या क्रिया हैं । विद्याध्ययन के पश्चात् उसके व्रतावरण क्रिया की जाती । इस क्रियामें वह औत्सिर्गिक व्रतरूप मूलगुणोंमें स्थित रहते हुए अध्ययनके समय के लिए हुए विशेष व्रतोंका अवतरण या त्याग कर देता है ।। १२१ ।। उस समय उसके मधुत्याग, मांस-परित्याग, पंच उदुम्बर फल- भक्षण- परिहार और हिंसादि पापोंसे विरतिरूप सार्वकालिक औत्सर्गिक व्रत जन्मपर्यन्त रहते है ।। १२२ ।। यह व्रतावतया गुरु साक्षी पूर्वक भगवान् की पूजाकर बारह वर्ष के बाद अथवा सोलह वर्ष के पश्चात् करना चाहिए ॥। १२३ ।। प्रथम ही द्विजोंका आदर-सत्कार करके व्रतावतरण क्रिया करना उचित है । तत्पश्चात् गुरुकी आज्ञा लेकर वस्त्र आभूषण और माला आदिको धारण करना चाहिए ।। १२४ ॥ इसके पश्चात् वह बालक यदि शस्त्रोपजीवी क्षत्रिय वर्गका हैं, तो अपनी जीविकाकी रक्षाके लिए शस्त्रोंको भी धारण कर सकता है । अथवा केवल शोभाके लिए भी शस्त्र धारण कर सकता है। ।। १२५ ।। इस प्रकार इस क्रियाके समय तक भोग-उपभोगके परित्यागके साथ जो ब्रह्मचर्यव्रत ले रखा था, उसका उसके यद्यपि त्याग हो जाता हैं, तथापि जब तक आगेकी वैवाहिकी क्रिया सम्पन्न नहीं होती हैं, तब तक उसके विषय सेवनके त्यागरूप ब्रह्मचर्य व्रत बना रहता हैं ।। १२६ । यह सोलहवीं व्रतावतरण क्रिया है । तदनन्तर जो विवाह करना चाहता है उसके गुरुकी अनुज्ञा लेकर विवाह के योग्य कुलमें उत्पन्न हुई योग्य कन्याके साथ विवाह करते समय वैवाहिकी क्रिया होती है । १२७ ।। उत्तम द्विजोंको चाहिए कि वे सर्वप्रथम भली भाँति से सिद्ध भगवान् की पूजन करके पुनः तीनों अग्नियोंकी जतन करके उसकी साक्षीपूर्वक विवाहकी क्रियाको करें ।। १२८ ।। किसी पुण्याश्रम या पवित्र स्थानपर सिद्धभगवान्‌ की प्रतिमाके सम्मुख उन दम्पति बननेवाले वर-वधूको बड़ी विभूति के साथ विवाहका उत्सव करना चाहिए ।। १२९ ॥ विवाह के समय वेदी पर जो तीन, दो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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