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श्रावकाचार-संग्रह
चरणोचितमन्यच्च नामधेयं तदस्य वै। वृत्तिश्च भिक्षयाऽन्यत्र राज्यन्यादुद्धवैभवात् ॥१०७ सोऽन्तःपुरे चरेत पात्र्यां नियोग इति केवलम् । तदनं देवसात्कृत्य ततोऽन्न योग्यमाहरेत् ।।१०८
__ (इत्युपनीतिः) वतचर्यामतो वक्ष्ये क्रियामस्योपविभ्रतः । कटयुरूर:शिरोलिङ्गमनूचानव्रतोचितम् ॥१०९ कटीलिङगं भवेदस्य मौजी बन्धात्त्रिभिर्गुणैः । रत्नत्रितयशध्यगतद्धि चिन्हं द्विजात्मनाम् ॥११० तस्येष्टमूलिङ्ग च सुधौतसितशाटकम् । आर्हतानां कुलं पूतं विशाल चेति सूचने ॥१११ उरोलिङ्गमथास्य स्याद ग्रथित सप्तभिर्गुण: यज्ञोपवीतकं सप्तपरमस्थानसूचकम् ।। ११२ शिरोलिगञ्च तस्यष्टं परं मौण्डयमनाविलम् । मौण्डयं मनोवचःकायगतमस्योपबृहयत् ॥११३ एवं प्रायेणलिङ्गेन विशुद्धं धारयेद् व्रतम् । स्थूलहिंसाविरत्यादिब्रह्मचर्योपबृंहितम् ।।११४ दन्तकाष्ठग्रहो नास्य न ताम्बूलं न चाञ्जनम् । न हरिद्रादिभिः स्नानं शुद्धस्नानं दिन प्रति।।११५ न खट्वाशयनं तस्य नान्याङ्गपरिघट्टनम् । भूमो केवलमेकाको शयीत् व्रतशुद्धये ॥११६ यावद विद्यासमाप्तिःस्यात् ताववस्य दृशंवतम् । ततोऽप्यूज़ वत् तत् स्याद् यन्मूल गहमेधिनाम्॥११७ सूत्रमोपासिकं चास्य स्यादध्येयं गरोर्मुखात् । विनयेन ततोऽन्यच्च शास्त्रमध्यात्मगोचरम् ।।११८ व्रतके चिन्हस्वरूप उस यज्ञोपवीतसूत्रको धारण करता हुआ उस समयसे ब्रह्मचारी कहा जाता है ।।१०६।। उस समय उसके आचरणके योग्य अन्य भी नाम रखे जा सकते है। ऐश्वर्यशाली राजपुत्रोंको छोडकर शेष सब ब्रह्मचारी भिक्षावृत्तिसे अपना निर्वाह करें । तथा जो राजपुत्र है, वह भी अन्तःपुरमें जाकर माता आदिसे किसी पात्रमें भिक्षा माँगे, क्योंकि उस समय भिक्षा माँगनेका यह केवल नियोग है । भिक्षामें प्राप्त आहारका मुख्य भाग अरहन्तदेवको समर्पण कर शेष योग्य अन्नका स्वयं आहार करे ।।१०७-१०८॥ यह चौदहवीं उपनीति क्रिया हैं । अब ब्रह्मचर्यव्रतके योग्य कटि, जाँध, वक्षःस्थळ और शिरके चिन्हको धारण करनेवाले उस ब्रह्मचारी बालकके धारण करने योग्य व्रतचर्या नामकी क्रियाको कहते हैं ।।१०९॥ तीन लडीवाली मूजकी रस्सी कमरमें बाँधना कटिचिन्ह हैं। यह मौंजी बन्धन रत्नत्रयको विशुद्धिका अंग हैं और द्विज लोगोंका एक चिन्ह है ।।११०।। भली भाँतिसे धली हई श्वेत धोती धारण करना जाँचका चिन्ह हैं यह उज्ज्वल धोती अरहन्त देवोंके पवित्र और विशाल कुलकी सूचक है ।।१११॥ सात लडका गूंथा हुआ यज्ञोपवीत वक्षःस्थलका चिन्ह है। यह यज्ञोपवीत सात परमस्थानोंका सूचक है ॥११२।। उस ब्रह्मचारीके शिरका चिन्ह स्वच्छ उत्तम मुण्डन है। यह मुण्डन उसके मन, वचन और कायके मुण्डनको अर्थात् विषयोंकी अनासक्तिको बढानेवाला हैं ।।११३।। प्रायःइस प्रकारके चिन्होसे विशुद्ध और ब्रह्मचर्य व्रतसे वद्धिको प्राप्त हुए ऐसे स्थूल हिंसाविरति आदि अणुव्रत उसे धारण करना चाहिए ॥११४।। यह ब्रह्मचारी न काठ. की दातुन करे, न ताम्बूल खावे, न आँखोंमें अंजन लगावे और न हलदी आदिसे स्नान ही करे । किन्तु प्रतिदिन केवल शुद्ध जलसे स्नान करे ॥११५॥ उसे खाट या पलंग पर नहीं सोना चाहिए, न उसे दूसरेके शरीरसे अपना शरीर ही रगडना चाहिए। किन्तु अपने व्रतकी शुद्धि के लिए वह भूमिपर केवल अकेला ही सोवे ।।११६।। जब तक इसका विद्याभ्यास सम्पूर्ण न हो, तब तक उसे इस प्रकारके व्रतोंका धारण करना आवश्यक हैं । विद्याभ्यास समाप्त होनेके पश्चात् उसे गहस्थोंके वे प्रसिद्ध अष्ट मूलगुण धारण करना चाहिए ।।११७ ।। इस ब्रह्मचारीको सर्वप्रत्रम गरुके मखसे विनयके साथ उपासकाध्ययनसूत्रका अध्ययन करना चाहिए । पुनः अध्यात्म विषयक अन्य भी शास्त्र
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