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________________ ३७ महापुराणान्तर्गत श्रावकधर्म-वर्णन ३७ ततोऽस्य हायने पूर्णे व्युष्टि म क्रिया मता । वर्षकधनपर्यायशब्दवाच्या यथाभुतम् ॥ ९६ अत्रापि पूर्ववद्दानं जैनी पूजा च पूर्ववत् । इष्टबन्धुसमान्हानं समाशादिश्च लक्ष्यताम् ।। ९७ (इति व्यष्टि:) केशवापस्तु केशानां शुभेऽन्हि व्यपरोपणम् । क्षौरेण कर्मणा देवगरुपूजापुर:सरम् ।। ९८ गन्धोदकाद्रितान् कृत्वा केशान् शेषाक्षतोचितान् । मौण्ड्यमस्य विधेयं स्यात् सचूलं स्वाऽन्वयोचितम् ।। ९९ स्नपनोदकधौंताङ्गमनुलिप्तं सभूषणम् । प्रणमय्य मुनीन् पश्चाद् योजयेद् बन्धुनाशिषा ॥ १०० चोलाख्यया प्रतीतेयं कृत पुण्याहमगङ्ला । क्रियास्यामादतो लोको यतते परया मुदा ।। १०. (इति केशवापः) ततोऽस्य पञ्चमे वर्षे प्रथमाक्षरदर्शने । ज्ञेयः क्रियाविधिर्नाम्ना लिपिसंख्यानसग्रहः ॥ १०२ यथाविभवमत्रापि ज्ञेयः पूजापरिच्छवः । उपाध्यायपदे चास्य मतोऽधीती गहवती ।। १०३ (इति लिपिसङ्ख्यानङ्ग्रह) क्रियोपनीति मास्य वर्षे गर्भाष्टमे मता । यत्रापनीतकेशस्य मोजीसव्रतबन्धना ॥ १०४ कृतार्हत्पूजनस्यास्य मौजीबन्धो जिनालये । गुरुसाक्षि विधातव्यो वतार्पणपुरस्सरम् ।। १०५ शिखी सितांशुकः सान्तर्वासा निर्वेषविक्रियः । व्रतचिन्हं दधत्सूत्रं तदोक्तो ब्रह्मचार्यसौ ॥ १०६ को अन्न खिलाना चाहिए ॥९५ । यह दशवी अन्नप्राशन क्रिया है तत्पश्चात् वालकको एक वर्षका होनेपर व्युष्टि नामकी क्रिया की जाती हैं। इस क्रियाका शास्त्रानुसार दूसरा नाम वर्षवर्धन या वर्षगांठ हैं ॥ ९६ ।। इस क्रिया में भी पर्व क्रियाके समान दान देना चाहिए और पूर्ववत् ही जिनपूजा करना चाहिए। इस समय इष्ट बन्धुओंको बुलाना चाहिए और भोजनादि करना चाहिए॥९७।। यह ग्यारहवीं व्युष्टि क्रिया है । तदनन्तर किसी शुभ दिन देव और गुरुकी पूजा बालकके केशोंका क्षौरकर्मसे अपनयन करावे । यह केशवाप क्रिया कहलाती है ।। ९८ । इस समय बालकके बालोंको गन्धोदकसे गीला कर और उन पर पूजनसे शेष रहे अक्षतोंको रखकर चोटी-सहित याअपने वंशकी पद्धतिके अनुसार मुंडवाना चाहिए ।।९९।। पुनः स्नानके योग्य जलसे उसका शरीर धोवे, चन्दन आदिका लेप करे,भूषण पहिनावे और मुनि जनोंको नमस्कार कराकर पीछे बन्धुजनोसे आशीष दिलावे ॥१००। यह चौल त्रिया नामसे प्रसिद्ध है। इस क्रिया पुण्याह मंगल किया जाता है और कुटुम्वीजन परम हर्षके साथ आदर पूर्वक इसमें सम्मिलित होते है ॥१०१।। यह बारहवीं केशवाप क्रिया है । तत्पश्चात् पाँचवें वर्ष में वालकको सर्वप्रथम अक्षरोंका दर्शन कराने में जो क्रियाविधि की जाती हैं,उसशा ‘लिपि संख्यान संग्रह'यह नाम जानना चाहिए। इसे करते समय अपनी सामर्थ्यके अनुसार पूजन-दान आदि करना चाहिए और जो अध्ययन कराने में कुशल गृहस्थ विद्वान् हो,उसे बालकका उपाध्याय नियुक्त करें ।१०२-१०३।। यह तेरहवीं लिपिसंख्यान क्रिया है । तदनन्तर गर्भसे आठवें वर्षमें उस बालककी उपनीति (यज्ञोपवीतधारण) क्रिया होती है। इस क्रियामें केशोंका मुण्डन, व्रत-बन्धन और मौंजीबन्धन किया जाता है ॥ १०४ ॥ प्रथम ही बालकको जिनालयमें ले जाकर उससे अरहन्त देवकी पूजन करावे । पुनः गुरुकी साक्षी पूर्वक उसे व्रत दिलाकर मौंजी बंधनकरना चाहिए। अर्थात् बालककी कमरमें मजकी रस्सी बाँधे ।।१०५।। जो शिखा (चोटी) सेयुक्त है,श्वेत वस्त्रका धोती और दुपट्टा धारण किये हैं, निर्विकार वेषका धारक है, ऐसा वह बालक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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