SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 53
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रावकाचार-संग्रह यथाविभवमत्रेष्टं देवर्षिद्विजपूजनम् । शस्तं च नामधेयं तत् स्थाप्यमन्वयवृद्धिकृत् ॥ ८८ अष्टोत्तरसहस्राद्वा जिननामदम्बकात् । घटपत्रविधानेन ग्राह्यमन्यतमं शुभम् ॥ ८९ (इति नामकर्म) बहिर्यानं ततोद्वित्रः मासस्त्रिचतुरैरुत । यथानुकूलमिष्टेऽन्हि कार्य तूर्यादिमगलैः ।। ९० तत्रप्रभृत्यभीष्टं हि शिशोः प्रसववेश्मनः । बहिः प्रणयनं मात्रा धाव्युत्सङ्गगतस्य वा ॥ ९१ तत्र बन्धुजनावर्थलाभो यः पारितोषिकः। स तस्योत्तरकालेऽर्यो धनं पित्र्यं यदाप्स्यति ।। ९२॥ (इति.बहिर्यानम् ) ततः परं निषद्यास्य क्रिया बालस्य कल्प्यते । तद्योगेतल्प आस्तीण कृतमगङ्लनिधो ॥ ९३ सिद्धार्चनादिकः सर्वो विधिः पूर्ववदत्र च । यतो दिव्यासनाहत्वमस्य स्यादुत्तरोत्तरम् ।। ९४ (इति निषिद्या) गते मासपृथक्त्वे च जन्माद्यस्य यथाक्रमम् । अन्नप्राशनमाम्नातं पूजाविधिपुरःसरम् ।। ९५ (इति अन्नप्राशनम् ) जन्म-दिनसे बारह दिनके बाद जो दिन पुत्रके अनुकूल हो, तथा माता-पिताको सुखदायक हो, उस दिन नामकर्मकी क्रिया की जाती हैं ॥४७॥ इस क्रियामें अपने वैभवके अनुसार अरहन्त देव और निर्ग्रन्थ गुरुओंकी पूजा और ब्राह्मणोंका यथोचित सत्कार करना चाहिए । तथा वंशकी वृद्धि करनेवाला कोई सुन्दर नाम बालकका रखना चाहिए ॥८८॥ अथवा जिनदेवके एक हजार आठ नामोंमेंसे घट-पत्रविधानसे कोई एक शुभ नाम रखना चाहिए ॥८९॥भावार्थ-जिनेन्द्र देवके एक हजार आठ नामोंको कागजके अलग अलग टुकडों पर अष्टगंध या केशरसे सुवर्ण या अनारकी लेखनीसे लिखकर उनकी गोलिया बना लेवे । पुनः उन्हे एक घटमें भरकर पीत वस्त्र और नारियलसे ढक देवे । तदनन्तर एक कागज पर 'नाम'ऐसा शब्द लिखकर गोली बनावें और एक हजार सात कोरे कागजोंके टुकडोंकी भी गोलियाँ बनाकर उन सबको दूसरे घडे में भरकर ढक देवे । तत्पश्चात् किसी छोटे अबोध बालक या बालिकासे दोनों घडोंमेंसे एक एक गोली निकलवा लें। जिस नामकी गोलीके साथ नाम लिखी गोली निकले, वही नाम बालकका रखना चाहिए । यह घटपत्रविधि कहलाती है । यह सातवी नामकर्म संस्कार क्रिया है । तत्पश्चात् दूसरे-तीसरे अथवा तीसरे चौथे मास में किसी शुभदिन तुरही आदि मांगलिक बाजोंको बजवाते हुए अपने अनुकूल वैभवके साथ बहिर्यान क्रिया करना चाहिए ॥ ९० ॥ जिस दिन यह क्रिया की जाय, उसी दिनसे माता अथवा धायकी गोदी में बैठे हुए बालकका प्रसूतिगृहसे बाहिर ले जाना शास्त्र-सम्मत माना गया है।।९१॥ इस क्रिया करते समय उस बालकको बन्धुजनोंसे जो भी पारितोषिक (भेंट) रूपसे धनका लाभ हो,वह सब उसे उस समय समर्पित करना चाहिए,जब कि वह पिताका उत्तराधिकारी बन कर पिता के धनको प्राप्त करे । अर्थात् पिताके गृहवास छोडते समय देना चाहिए ।।९२।। यह आठवी बहिर्यानक्रिया हैं। तदनन्तर उस बालककी निषद्याक्रिया की जाती है । इस क्रियामें अन्य मांगलिक कार्योंके साथ बालकके योग्य विछायी गयी शय्या पर उसे बैठाया जाता हैं । इस क्रियामें सिद्धपूजनादिक सर्व विधि पूर्वके समान ही करना चाहिए, जिससे कि उस बालकको उत्तरोत्तर दिव्य आसन पर बैठने की योग्यता प्राप्त हो ।।९३-९४।। यह वमी निषद्याक्रिया है । इस प्रकारयथा क्रमसे जन्म-दिनके पश्चात् सात-आठ मास व्यतीत होने पर जिनेन्द्रदेवकी पूजन आदि विधिपूर्वक बालवा: Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy