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________________ ३५ महापुराणान्तर्गत श्रावकधर्म-वर्णन गर्भाधान क्रियामेनां प्रयुज्यादौ यथाविधि । सन्तानार्थ विना रागाद् दम्पतिभ्याविधीयताम् ॥७६ ( इति गर्भाधानम् ) गर्भाधानात् परं मासे तृतीये सम्प्रवर्तते । प्रोति म क्रिया प्रीतैः याऽनुष्ठेया द्विजन्ममिः ॥७७ तत्रापि पूर्ववन्मन्त्रपूर्वा पूजा जिनेशिनाम् । द्वारि तोरणनिन्यासः पूर्णकुम्भौ च सम्मती ॥७८ तदादि प्रत्यहं मेरीशब्दो घण्ट ध्वनान्वितः । यथाविभवमेवैतैः प्रयोज्यो गृहमेधिभिः । ७९ (इति प्रीतिः) आधानात् पंचमे मासि क्रिया सुप्रीतिरिष्यते । या सुप्रीतः प्रयोक्तव्या परमोपासकवतः । ८० तत्राप्युक्तो विधिः पूर्वः सर्वोऽहंबिम्बसन्निधौ । कार्यो मन्त्रविधानज्ञैः साक्षीकृत्याग्निदेवताः।।८१ ( इसि सुप्रीतिः ) धृतिस्तु सप्तमे मासि कार्यात द्वत् क्रियादरः । गृहमेधिभिरव्यग्रमनोभिर्गर्भवृद्धये।।८२॥ (इति धृतिः) नवमे मास्यतोऽभ्यणे मोदो नाम क्रियाविधिः । तद्वदेवाहतैः कार्यो गर्भपुष्टय द्विजोत्तमैः ।। ८३ तष्टो गात्रिकाबन्धी मागल्यं च प्रसाधनम् । रक्षासूत्रविधानं च गभिण्या द्विजसत्तमः ।।८४ (इति मोदः ) प्रियोद्भवः प्रसूतायां जातकर्मविधिः स्मृतः । जिनजातकमाध्याय प्रवयो यो यथाविधि ।।८५ अवान्तर विशेषोऽत्र क्रियामन्त्रादिलक्षणः। भूयान् समस्त्यतीज्ञेयो मूलोपासकसूत्रतः।। ८६ प्रियोद्भवः) द्वादशाहात् प नामकर्म जन्मदिनान्मतम् । अनुकूले सुतस्यास्य पित्रोरपि सुखावहे ॥८७ जाननेवाले श्रावकोंको व्यामोह (हठाग्रह) छोडकर जिन मन्त्रोंका प्रयोग करना चाहिए ॥७५।। इस गर्भाधान क्रियाको पहले विधिपूर्वक करके पीछे स्त्री और पुरुष विषयानुरागके विना केवल सन्तानकी प्राप्तिके लिए समागम करें।७६।। ( यह पहली गर्भाधान क्रिया है) गर्भाधानके पश्चात् तीसरे मासमें प्रीति नामकी क्रिया की जाती है, जो प्रीतिको प्राप्त द्विजोंके द्वारा अनुष्ठान करने के योग्य हैं। ७७ ।। इस क्रियामें भी पहलेके समान मंत्र-पूर्वक जिनेश्वरदेवकी पूजा करना चाहिये, तथा द्वारपर तोरण बाँधना चाहिए और दो जलसे भरे कलश स्थापन करना चाहिए ।। ७८ ।। उस दिनसे लेकर इन द्विज गृहस्थोको प्रतिदिन अपने वैभवके अनुसार घण्टा और नगाडे बजवाना चाहिये ॥७९॥ (यह दुसरी प्रीतिक्रिया है) गर्भाधानसे पाँचवें मासमें सुप्रीति क्रिया की जाती है। इसे भी अतिप्रीतिको प्राप्त परम श्रावकोंको करना चाहिए ।।८। इस क्रियामें भी पूर्वोक्त सर्बविधि अहंद्-बिम्बके समीप मंत्र-विधानके ज्ञाता गृहस्थोंको अग्नि और देवताकी साक्षी करके करना चाहिए ॥ ८१ ।। (यह तीसरी सुप्रीति क्रिया है) गर्भाधानसे सातवें मासमें आदर पूर्वक स्थिर चित्तवाले गृहस्थोंको पूर्वके समान ही गर्भकी वृद्धिके लिए धृति नामकी क्रिया करना चाहिए ।।८२। (यह चौथी धृतिक्रिया है) इसके पश्चात् नवम मासके समीप आनेपर मोदनामक क्रियाविधि पूर्वके समान ही आदर युक्त उत्तम द्विज गृहस्थोंको गर्भकी पुष्ठिके लिए करना चाहिए ।।८३। इस क्रियामें उत्तम द्विजोंको गर्भिणीके शरीरपर गात्रिका बन्ध करना चाहिए, अर्थात् मन्त्र-पूर्वक बीजाक्षर लिखना चाहिये, मंगलाचार करना चाहिए, गर्भिणीको आभूषण पहिराना चाहिए और उसकी रक्षाके लिए रक्षासूत्र बाँधना चाहिए ।।८४ । (यह पाँचवी मोदक्रिया है) पुत्रके उत्पन्न होनेपर प्रियोद्भव नामकी क्रिया की जाती है। इसे जातकर्म विधि कहते हैं । इस क्रियाको जिन भगवान्का जन्मसमय स्मरण कर शास्त्रोक्त विधिसे करना चाहिए॥८५।। इस क्रिया में क्रियामंत्र आदि अवान्तर विशेष कार्य बहत - होते हैं, वे सब मूल उपासकाध्ययन सूत्रसे जानना चाहियें ।।८६॥(यह छठी प्रियोद्भव क्रिया है ) पुत्रके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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