SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 51
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३४ श्रावकाचार-संग्रह मवतारो वृत्तलामः स्थानलामो गणग्रहः । पूजाराध्यपुण्ययज्ञो दृढचर्योपयोगिता ॥ ६४ इत्युद्दिष्टाभिरपामिरुपनीत्यादयः क्रिया: । चत्वारिंशत्प्रमायक्ता: ताः स्युःक्षान्वयक्रियाः ॥ ६५ तास्तु कर्बन्वया ज्ञेया या: प्राप्या: पुण्यकर्तृभिः । फलरूपतया वृत्ताः सन्मार्गाराधनस्य वै ॥ ६६ सज्जातिः सद्ग्रहित्वं च पारिवाज्यं सुरेन्द्रता । साम्राज्यं परमाहंन्त्यं परनिर्वाणमित्यपि ॥ ६५ स्थानान्येतानि सप्त स्युः परमाणि जगस्त्रये । अर्हद्वागमृतास्वादात् प्रतिलभ्यानि देहिनाम् ॥ ६८ क्रियाकल्पोऽयमाम्नातो बहुभेदो महषिभिः । सङ्क्षपतस्तु तल्लक्ष्म वक्ष्ये सञ्चक्ष्य विस्तरम् ॥६१ आधानं नाम गर्भादो संस्कारो मंत्रपूर्वकः । पत्नीमृतुमती स्नातां पुरस्कृत्यादिज्यया ॥७० तत्रार्चनाविधी चक्रत्रयं छत्रत्रयान्वितम् । जिना मभितः स्थाप्यं समं पुण्याग्निमिस्त्रिभिः ।। ७१ प्रयोऽन्योऽहंदगणमच्छेषकेवलिनिर्वती। ये हतास्ते प्रणेतव्या: सिद्धार्चावेद्यपाश्रयाः ।। ७२ तेष्वहंदिज्वाशेषांशेराहुतिमंन्त्रपूर्विका । विधेया शुचिभिर्द्रव्यः पुंस्पुत्रोत्पत्तिकाम्यया ॥ ७३ तन्मन्त्रास्तु यथाम्नायं वक्ष्यन्तेऽन्यत्र पर्वणि । सप्तधा पीठिकाजातिमन्त्रादिप्रविमागतः ॥७४ विनियोगस्तु सर्वासु क्रियास्वेषां मतो जिनः । अव्यामोहावतस्तज्जैः प्रयोज्यास्त उपासकः ॥ ७५ यौवराज्य, ४३. स्वराज्य, ४४.चक्रलाभ,४५.दिग्विजय,४६.चक्राभिषेक, ४७. साम्राज्य,४८.निष्कान्ति, ४९.योगसम्मह,५०.आर्हन्त्य,५१.अर्हद्विहार,५२. योगत्याग और ५३. अग्रनिर्वृत्ति । इस प्रकार गर्भाधानसे लेकर निर्वाणपर्यन्त तिरेपन क्रियाएँ परमागममें वर्णन की गई है ।। ५४-६३ ।।१. अवतार, २. वृत्तलाभ, ३. स्थानलाभ, ४. गणग्रह, ५. पूजाराध्य, ६ पुण्ययज्ञ, ७. दृढचर्या और ८.उपयोगिता इन आठ क्रियाओंके साथ पूर्वोक्त चौदहवीं उपनीति क्रियासे लेकर तिरेपनवीं निर्वाण क्रिया पर्यन्त चालीस क्रियाएँ मिलाकर कुल अडतालीस दीक्षान्वय क्रियाएँ होती हैं ।। ६४-६५ ।। कत्रन्वयक्रियाएँ उन्हे जानना चाहिए जो पुण्यकार्य करनेवाले मनुष्यों को प्राप्त होने के योग्य है और जो निश्चयसे सन्मार्गकी आराधनाके फलरूपसे प्रवृत्त होती है ।। ६६ ।। वे कर्बन्वयक्रियाएँ सात है१.सज्जाति, २. सद्-गृहित्व, ३. पारिव्राज्य, ४. सुरेन्द्रता, ५. साम्राज्य,६.परमाईन्त्य और ७.परमनिर्वाण 1 ये सातों ही तीनों लोकोंमें परमस्थान माने गये है और इनकी प्राप्ति प्राणियोंको अरहन्तदेवकी वाणीरूपी अमृतके आस्वादनसे अर्थात् जिन वाणीके अभ्याससे होती हैं ।। ६७-६८ ॥ यद्यपि महान ऋषियोंने इन सब क्रियाओंका विधान अनेक भेदवाला वर्णन किया है,तथापि मैं विस्तारको छोडकर संक्षेपसे ही उन क्रियाओंका लक्षण कहूंगा ॥६९।। रजस्वला पत्नीको चौथे दिन स्नान करके शुद्ध होनेके पश्चात् उसे आगे करके गर्भ-धारण करने के पूर्व अरहन्तदेवकी पूजाके साथ मन्त्र-पूर्वक जो संस्कार किया जाता है, उसे आधान क्रिया कहते हैं ॥ ७० ॥ इस आधान क्रियाकी पूजामें जिनप्रतिमाके दायीं ओर तीन चक्र, बायीं ओर तीन छत्र और सामने तीन प्रकारकी पुण्याग्निको स्थापित करे ॥७१॥ तीर्थकर अर्हन्तदेवके निर्वाण होनेपर गणधर देवोंके निर्वाण होनेपर और सामान्य केवलियोंके निर्वाण होनेपर उनके अन्तिम संस्कारके समय जिन अग्नियोंमें हवन किया गया था उन तीनों पवित्र अग्नियोंको सिद्ध प्रतिमाकी वेदीके समीप तैयार करना चाहिए ॥७२॥ अर्हन्तदेवकी पूजा करनेके पश्चात् बचे हुए शेष द्रव्यांशसे, तथा अन्य पवित्र द्रव्योंके द्वारा उत्तम-पुत्रके उत्पत्तिकी कामनासे मंत्रपूर्वक उक्त तीनों अग्नियोंमें आहुति देना चाहिए ॥७३॥आहुति देनेके वे मन्त्र आगेके पर्वमें आम्नायके अनुसार कहे जावेंगे। वे पीठिकामन्त्र, जातिमन्त्र आदिके भेदसे सात प्रकारके हैं 11 ७४ ॥ जिन भगवन्तोंने इन मन्त्रोंका प्रयोग सभी क्रियाओंमें बतलाया हैं, अतएव उस विषयके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy