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________________ ३२० श्रावकाचार-संग्रह सर्वारम्मानिवृत्तेस्ततः परं तस्य जायते पूतम् । पापापायपटीयः सुखकारि महाव्रतं पूर्णम् ॥ ७७ वेशावधिमपि कृत्वा यो नाकामति सदा पुनस्त्रेधा । देशविरते द्वितीयं गुणवतं वर्ण्यते' तस्य ॥७८ काष्ठेनेव हुताशं लाभेन विवर्धमानमतिमात्रम्। प्रतिदिवसं यो लोमं निषेधयति तस्य क: सदशः ॥ ७९ सोऽनर्थ पञ्चविध परिहरति विवृद्धशुद्धधर्ममतिः । सोऽनयंदण्डविरति गुणवतं नयति परिपूर्तिम्।।८० पञ्चाना दुष्टाध्ययनं पापोपदेशनासक्तिः । हिंसोपकारि दानं प्रमावचरणं श्रुतिर्दुष्टा ।। ८१ मण्डलविडालकुक्कुटमयूरशुकसारिकादयो जीवा: । हितकामैन ग्राह्याः सर्वे पापोपकारपराः ॥ ८२ लोहं लाक्षा नीली कुसुम्भमदनं विषं शस्त्रम् । सन्धानकं च पुष्पं सर्वं करुणापरयम् ।। ८३ नाली सूरणकन्दी दिवस द्वितयोषिते च दधिमथिते। विद्धं पुष्पितमन्नं कालिङ्ग द्रोणपुष्पिका त्याज्या ।। ८४ आहारो निःशेषो निजस्वभावादन्यभावमुपयातः । योऽनन्तकायिकोऽसौ परिहर्तव्यो दयालोढः ।। ८५ हो जानेसे उसके अणुव्रत भी पापोंके विनाश करने में निपुण, सुखकारी और पवित्र पूर्ण महाव्रत रूप हो जाते हैं ।।७७।। अब दूसरे देशविरति गुणवतका स्वरूप कहते है-दिग्ब्रतकी मर्यादाके भी भीतर दैनिक आवश्यकताके अनुसार देश की मर्यादा को करके जो उसका मन वचन कायसे अतिक्रमण नहीं करता है, उसके देशविरति नामका दूसरा गुणव्रत कहा जाता है ।।८।। जैसे काठके लाभसे अग्नि उत्तरोत्तर बढ़ती है,उसी प्रकार परिग्रहकी प्राप्तिसे लोभ भी उत्तरोत्तर अत्यधिक बढता है। जो पुरुष प्रतिदिन लोभका निषेध करता है, उसके समान कौन हो सकता हैं ।।९।। अब अनर्थदण्ड विरतिनामक तीसरे गुणवतको कहते हैं-जिसकी शुद्ध धर्म धारण करने में बुद्धि बढ रही है, ऐसा जो पुरुष वक्ष्यमाण पांचों प्रकारके अनर्थो का परिहार करता है, वह अनर्थ दण्ड विरति नामक गुणवतकी परिपूर्ति करता है ।।८०। दुष्ट ध्यान (अपध्यान) पापोपदेशनासक्ति, हिंसोपकरणदान, प्रमादाचरण और दुष्टशास्त्रश्रवण, य पांच अनर्थदण्ड कहे गये हैं ।।८१।। भावार्थ-किसीकी जीत और किसीकी हारका चिन्तवन करना, आर्त और रौंद्र ध्यान करना दुष्टध्यान अनर्थदण्ड है। हिंसादि पाप कर्मोका उपदेश देना पापोपदेश अनर्थदण्ड है। हिंसा करने वाले अस्त्र-शस्त्रादि उपकरणोंको देना हिंसोपकरणदान अनर्थ दण्ड हैं । निष्प्रयोजन एकेन्द्रिय जीवोंकी विराधना करना प्रमादचर्या अनर्थदण्ड है और राग-द्वेष बढाने वाली खोटी कथाओंका सुनना दुःश्रुति अनर्थदण्ड हैं श्रावकको इन पांचों ही अनर्थदण्डोंका त्याग करना चाहिए। आत्म-हितके इच्छुक पुरुषोंको कुत्ता, बिलाव, मुर्गा, मोर, तोता, मैना आदि पापोंका उपकार करने वाले अर्थात् पापोंको बढाने वाले हिंसक जीव ग्राह्य नहीं हैं, अतः इन्हें नहीं पालना चाहिए ।।८२।। करुणामें नत्पर पुरुषोंको लोहा, लाख, नील, कुसुम (रंग), धतूरा, विष, सन, शस्त्र, सन्धानक (अचार-मुरब्बा) और सभी प्रकारके पुष्प इन वस्तुओंका त्याग करना चाहिए। अर्थात इनका व्यापार न करे और न स्वयं उपयोगमें लावे ॥८३।। कमलनाल, सूरण, जमीकन्द, तथा दो दिनका वासी दही छाँछ, वींधा अन्नअंकुरित अन्न, कलींदा (तरबूज) और द्रोणपुष्पिका (राई-सरसों) इन वस्तुओंका भक्षण त्यागने के योग्य है ॥८४।। जो चारों ही प्रका• का आहार अपने वास्तविक स्वभावसे अन्य स्वभावको प्राप्त हो जाय, अर्थात् जिसका स्वाद बिगड जाय, ऐसा चलितरस वाला आहार और सभी प्रकार १, मु. 'तस्य जायेत'। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org .
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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