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अमितगतिकृतः श्रावकाचारः
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नासक्त्या सेवन्ते भायाँ स्वामपि मनोभवाकुलिताः। यन्हिशिखाऽप्यासक्त्या शीतात: सेविता दहति ॥ ६७ः दृष्ट्या स्पृष्ट्वा लिष्ट्वा दृष्टिविषायाऽहिमूतिरिव हन्ति ।
तां पररामां भव्यो मनसाऽपि न सेवते जातु ॥ ६८ तीव्राकारा तप्ता या स्पृष्टा दहति पावकशिखेव । मारयति योषमुक्ता प्ररूढविषविटपिशाखेव ॥६९
मोहयति झटिति चित्तं निषेवमाणा सुरेव या नितराम् । या गलमालिङ्गति निपीडयति गण्डमालेव ॥७० व्याघ्रीव याऽऽमिषाशा विलोक्य रमसा जनं विनाशयति । पुरुषार्थपरैः सद्भिः परयोषा सा त्रिधा त्याज्या ।। ७१ मलिनयति कुलद्वितयं दीपशिखेवोज्ज्वलाऽपि मलजनंजी।
पापोपभुज्यमाना परवनिता तापने निपुणा ॥ ७२ वास्तु क्षेत्रं धान्यं दासी दासश्चतुष्पदं भाण्डम् । परिमेयं कर्तव्यं सर्वं सन्तोषकुशलेन ॥ ७३ विध्यापयति महात्मा लोभं दावाग्निस निमं ज्वलितम् । भवनं तापयमानं सन्तोषोदगाढसलिलेन.७४ सर्वारम्भा लोके सम्पद्यते परिग्रहनिमित्ताः । स्वल्पयते यः सङ्गं स्वल्पयति स सर्वमारम्भम् ॥७५
ककुबष्ट केऽपि कृ वा मर्यादा यो न लधयति धन्यः ।
दिग्विरतेस्तस्य जिनैर्गुणत्र कतंथ्यते प्रथमम् ।। ७६ ज्ञानीजन अति आसक्तिसे अपनी स्त्रीका भी सेवन नहीं करते हैं । देखो-शीतसे पीडित पुरुषोंके द्वारा अति आसक्तिसे सेवन की गई अग्निकी ज्वाला उन्हें जलाती ही है। ६७॥जो परायी स्त्री देखी, स्पर्शी और आलिंगन की गई दृष्टिविषा नागिनीके समान पुरुषका घात करती है, उसपररामाका भव्य पुरुष मनसे भी कदापि सेवन नहीं करते है ॥६८॥ यह जो स्पर्श की गई भी परस्त्री अति प्रदीप्त आकार वाली तप्तायमान अग्निशिखाके समान जलाती हैं और सेवन की गई परस्त्री तो विस्तृत विषवृक्षकी शाखाके समान मार देती है ॥६९।। जो सेवन की गई परस्त्री मदिराके समान चित्तको शीघ्र अत्यन्त मोहित कर देती हैं और जो गलेम आलिंगन की गई परस्त्री गंडमाल रोग के समान अत्यन्त पीडा देती हैं ।।७०॥ जो परस्त्री मांस-भक्षिणी व्याघ्रीके समान देखते ही मनुष्यको शीघ्र विनष्ट कर देती हैं, ऐसी परायी स्त्री धर्म पुरुषार्थमें तत्पर सज्जनोंको मन वचन कायसे त्याग देना चाहिए ॥७॥ उज्ज्वल सन्दर आकार वाली भी भोगी गई पापिनी परायी स्त्री प्रकाशमान दीपशिखाके समान दोनों कुलोंको मलिन करती है,मलको उत्पन्न करती हैं और सन्तापको बढाती हैं ।। २।। अब आचार्य परिग्रहपरिमाण-अणुव्रतका वर्णन करते हैंसन्तोषमें कुशल गृहस्थको मकान, खेत, धन, धान्य, दासी, दास, चौपाये-गाय आदि और वासनवस्त्रादिक सर्व प्रकारके परिग्रहका परिमाण करना चाहिए ॥७३॥ परिग्रहपरिमाण करने वाला महात्मा सन्तोष रूप प्रगाढ जलके पूरसे दावाग्निके समान जलने वाले और सारेसंसारको संतप्त करनेवाले लोभको बुझाकर शान्त कर देता हैं ।।७४।। लोकमें सभी आरम्भ परिग्रहके निमित्त ही सम्पादित किये जाते है । अतः जो पुरुष परिग्रहको अल्प करता है, वह सभी आरम्भोंको भी कम करता है ।।७५ । अब दिग्विरति नामक प्रथम गुणव्रत कहते हैं-जो धन्य पुरुष आठों दिशाओंमें जीवन भरके लिए जाने जानेकी मर्यादा करके उसे उल्लंघन नहीं करता हैं उसके जिन भगवान्ने दिग्विरति नामका प्रथम गुणव्रत कहा हैं ॥७६॥ दिग्वतकी मर्यादाके बाहिर सर्व आरम्भ की निवत्ति
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