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________________ ३१० श्रावकाचार-संग्रह अथ्यं पश्यं तथ्यं श्रव्यं मधुरं हितं वचो वाच्यम् । विपरीतं मोक्तव्यं जिनवचनविचारकैनित्यम् ॥ ५६ वैरायासाप्रत्ययविषादकोपादयो महादोषाः । जन्यन्तेऽनतवचसा कुभोजननेनेव रोगगणाः ॥ ५७ वचसाऽनतेन जन्तोव॑तानि सर्वाणि झटिति नाश्यन्ते। विपुलफलवन्ति महता दवानलेनेव विपिनानि ।। ५८ क्षेत्रे ग्रामेऽरण्ये रथ्यायां पथि गृहे खले घोषे । ग्राह्यं न परद्रव्यं भ्रष्टं नष्टं स्थितं वाऽपि ॥ ५९ तणमात्रमपि द्रव्यं परकीयं धर्मकांक्षिणा पुंसा । अवितीर्ण नादेयं वहिनसमं मन्यमानेन ।। ६० यो यस्य हरति वित्तं स तस्य जीवस्य जीवितं हरति । आश्वासकर बाह्यं जीवानां जीवितं वित्तम् ॥ ६१ सदशं पश्यन्ति बुधाः परकीयं काञ्चनं तृणं वाऽपि । सन्तुष्टा निजवितैः परतापविभौरवो नित्यम् ।। ६२ तैलिकलुब्धकखट्टिकमार्जारव्याघ्रधीवरादिभ्यः । स्तेनः कथितः पापी सन्ततपरतापदानरतः ॥ ६३ स्वसृमातदुहितसदृशीर्दृष्ट्वा परकामिनीः पटीयांसः । दूरं विवर्जयन्ते भुजगीरिव घोरदृष्टिविषाः॥ न निषेव्या परनारी मदनानलतापितरपि त्रेधा । क्षुत्क्षामैरपि दक्षेर्न भक्षणीयं परोच्छिष्टम् ।। ६५ विषवल्लीमिव हित्वा पररामां सर्वथा त्रिधा दूरम् । सन्तोषः कर्तव्यः स्वकलत्रेणैव बुद्धिमता ॥६६ को गीवचन कहा हैं ।।५५॥ इसलिए जिनवचनोंके विचारक पुरुषोंको कभी भी गद्य वचन नहीं वोलना चाहिए और प्रयोजनवाले पथ्य, तथ्य, श्रवण योग्य, मधुर, हितकारी वचन बोलना चाहिए ॥५६॥ जैसे खोटा भोजन करनेसे अनेक रोग उत्पन्न होते हैं, उसी प्रकार असत्य वचन बोलनेसे वैरभाव, विभ्रम, प्रतीति, विषाद और क्रोध आदि अनेक महादोष उत्पन्न होते है ॥५७।। जैसे महा दावानलसे महान् फलशाली वृक्षोंसे युक्त वन जला दिये जाते है, उसी प्रकार असत्य वचनसे जीवोंके सर्व व्रत शीघ्र नष्ट हो जाते हैं ॥५८।। अब आचार्य अचौर्याणुव्रतका वर्णन करते हैखेतमें, ग्राममें, वनमें, गलीमें, मार्गमें, घरमें, खलिहानमें अथवा ग्वालटोलीमें रखे, गिरे, पडे या नष्ट भ्रष्ट हुए पराये द्रव्यको नहीं ग्रहण करना चाहिए ।।५९॥ धर्मकी आकांक्षा रखनेवाले पुरुषको चाहिए कि वह विना दिया हुआ तृणमात्र भी पराया द्रव्य अग्निके समान मानकर ग्रहण न करें ।।६०।। जो पुरुष जिस किसीके धनको हरण करता है, वह उसके जीवनका ही अपहरण करता हैं । क्योंकि धन जीवोंका धैर्य बंधाने वाला बाहरी प्राण हैं ।।६१।। अपने धनसे सन्तुष्ट रहनेवाले और दूसरोंको सन्त' प देनेसे सदा डरनेबाले ज्ञानी जन पराये सुवर्ण और तृणको भी समान ही दृष्टिसे देखते हैं ॥६२।। सदा दूसरोंको सन्ताप देने में संलग्न चोर, तेली,शिकारी, खटीक, बिलाय, बाघ धीवर आदिसे भी अधिक पापी कहा गया हैं ।। ६३।। ___अब आचार्य ब्रह्मचर्याणुव्रतका वर्णन करते है-ज्ञानी पुरुष परायी स्त्रियोंको बहिन, माता और पुत्री के समान देखकर घोर दृष्टि-बिषवाली सर्पिणीके समान दूरसे ही परित्याग करते हैं ।।६४॥ कामाग्निसे अत्यन्त सन्तप्त भी पुरुषोंको मन वचन कायसे परायी स्त्रीका सेवन नहीं करना चाहिए । जैसे कि भूखसे अति पीडित भी पुरुषोंको पराया झूठा भोजन नहीं खाना चाहिए ॥६५॥ इस लिए बुद्धिमान् पुरुषको परायी स्त्री विष वेलिके समान जानकर सदा मन वचन कायसे दूर से ही छोडकर अपनी विवाहिता स्त्रीसे ही सन्तोष करना चाहिए ।।६६।। कामदेवसे आकुलित भी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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