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________________ अमितगतिकृतः श्रावकाचारः यन्म्लेच्छेष्वपि गह्यं यदनावेयं जिघृक्षतां धर्मम् । यदनिष्टं साधुजनैस्तद्वचनं नोच्यते सद्भिः ॥ ४५ कामक्रोधात्रीडाप्रमादमदलोभमोहविद्वेषः । वचनमसत्यं सन्तो निगदन्ति न धर्मरतचित्ताः ॥ ४६ सत्यमपि विमोक्तव्यं परपीडारम्भतापभयजनकम् । पापं विमोक्तुकामैः सुजनैरिव पापिनांवृत्तम् ॥ ४७ भाषन्ते नासत्यं चतुष्प्रकारमपि संमृतिविभीताः । विश्वासधर्महननं विषादजननं बुधावमतम् ॥४८ असदुद्भावनमाद्यं वचनमसत्यं निगद्यते सद्भिः ऐकान्तिकाः समस्ता भावा जगतीति विज्ञेयम् ॥ ४९ तदपलपनं द्वितीयं वितथं कथयन्ति तथ्यविज्ञानाः । सृष्टिस्थितिलययुक्तं किञ्चिन्नास्तीति यदभिहितम् ॥ ५० विपरीतमिदं ज्ञेयं तृतीयकं यद्वदन्ति विपरीतम् । सग्रन्थं निर्ग्रन्थं निर्ग्रन्थमपीह सग्रन्थम् ॥ ५१ सावद्याप्रियगर्ह्यप्रभेदतो निन्द्यमुच्यते त्रेधा । वचनं वितथं दक्षैर्जन्माब्धिनिपातने कुशलम् ।। ५२ आरम्भ: सावद्या विचित्रभेदा यतः प्रवर्तन्ते । सावद्यमिदं ज्ञेयं वचनं सावद्यवित्रस्तैः ॥ ५३ कर्कश निष्ठुर भेदनविरोधनादिबहुभेदसंयुतम् । अप्रियवचनं प्रोक्तं प्रियवाक्यप्रवणवाणीकः ।। ५४ हिंसनताडन भीषणसर्वस्वहरणपुरःसर विशेषम् । गर्ह्यवचो भाषन्ते गर्भोज्झितवचनमार्गज्ञाः ।। ५५ ३१७ मूढ पुरुष मनसे, वचनसे और कायसे हिंसाको करता हैं, वह इस अतिदीर्घ संसाररूप वन में दीर्घ कालक हिंसा के फलसे दुख भोगता हुआ परिभ्रमण करता रहता हैं || ४४|| अब आचार्य सत्याणुव्रतका वर्णन करते हैं- जी वचन म्लेच्छ जनों में भी निन्द्य माने जाते है, धर्मको ग्रहण करने वालोंको जो अनादरणीय हैं, और साधु जनोंको जो इष्ट नहीं है, ऐसे वचन सज्जन पुरुषों को नहीं बोलना चाहिए ॥ ४५ ॥ जिनका धर्म में चित्त संलग्न हैं, ऐसे पुरुष काम क्रोध कुतुहल प्रमाद मद लोभ मोह और विद्वेष भावसे असत्य वचन नहीं बोलते है || ४६ || जिस प्रकार सज्जन पुरुष पापियोंके आचरणको छोडते है, इसी प्रकारसे पापको छोडनेकी इच्छा वाले सज्जनोंको पर पीडा - कारक, आरम्भ-जनक, सन्ताप उत्पादक और भय वर्धक सत्य वचन भी छोडना योग्य हैं । अर्थात् ऐसे सत्य वचन भी नहीं बोलना चाहिए जो दूसरे जीवोंको पीडा, सन्ताप, भय आदि उत्पन्न करें ।।४७।। संसारसे भयभीत पुरुष विश्वास और धर्मके जलाने वाले, विषादके उत्पन्न करने वाले और बुधजनोंसे तिरस्कार पानेवाले असदुद्भावन, भूतनिन्हव, विपरीत और निन्द्य इन चारों ही प्रकारके असत्य वचनोंको नहीं बोलते है ।। ४८ ।। संसारमें समस्त पदार्थ नित्य ही है, अथवा अनित्य ही है, इस प्रकार से एक धर्म रूप कहे जाने वाले वचनों को सज्जनोंने असदुद्भावन नामका प्रथम असत्य कहा है, ऐसा जानना चाहिए ॥ ४९ ॥ | उत्पत्ति, स्थिति और विनाशयुक्त कोई भी वस्तु नहीं है, ऐसे कथनको सत्यज्ञानी पुरुषोंने सत्का अपलाप करनेवाला दूसरा भूतनिन्हव नामका असत्य कहा हैं ।। ५० ।। लोकमें जो परिग्रहसहित है उन्हें निर्ग्रन्थ कहना और जो परिग्रह - रहित हैं उन्हें सग्रन्थ कहना, ऐसे जो विपरीत कथन करते हैं, उसे विपरीत नामका तीसरा असत्य जानना चाहिए ।। ५२ ।। सावद्य, अप्रिय और गर्ह्यके भेदसे दक्ष पुरुषोंने निन्द्य वचन तीन प्रकारका कहा गया है। यह चौथा असत्य वचन संसार-समुद्रमें डुबानेमें कुशल हैं ॥ ५२ ॥ | जिस वचनके बोलनेसे अनेक भेदवाले पाप-युक्त आरम्भ कार्य प्रवृत्त होते हैं, उसे पापसे भयभीत पुरुषोंको सावद्य वचन जानना चाहिए ।। ५३ ।। प्रिय वचन रूप वाणीके बोलनेमें प्रवीण पुरुषोंने कर्केश, निष्ठुर, भेद-कारक क्षौर विरोध-वर्धक आदि अनेक भेदोंसे संयुक्त वचनों को अप्रिय वचन कहा हैं ।। ५८ ।। गर्ह्यवचनसे रहित जैन मार्ग के ज्ञाता पुरुषोंने हिंसाकारी, ताडनारूप, भयानक और पराये धनके हरण करनेवाले इत्यादि लोक-निन्द्य वचनों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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