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________________ अमितगतिकृतः श्रावकाचारः २७७ तुर्यादारभ्य विज्ञेयमुपशान्तान्तमाविमम् । चतुर्थे पंचमे षष्ठे सप्तमे वेदकं पुनः ।। ५७ साध्यसाधनभेदेन द्विधा सम्यक्त्वमिष्यते । कथ्यते क्षायिकं साध्यं द्वितीयं साधनं परम् ।। ५८ प्रथमायां त्रयं पृथ्व्यामन्यासु क्षायिकं विना 1 सम्यक्त्वमुच्यते सद्भिर्भवभ्रमणसूदनम् ॥ ५९ तिर्यङ्म नवदेवानां सम्यक्त्वत्रितयं मतम् । निलिम्पीनां तिरश्चीनां क्षायिक विद्यते न तु॥६० क्षायोपशमिकस्योक्ताः षट्पष्टिर्जलराशयः । अन्तमौंहतिकी ज्ञेया प्रथमस्य स्थिति: परा।। ६१ पूर्वकोटिद्वयोपेतास्त्रयस्त्रिशन्नदीशिनः । ईषदूना स्थिति या क्षायिकस्योत्तमा बुधः ॥ ६२ अधस्ताच्छवभ्रभूषट्के सर्वत्र प्रमदाजने । निकायत्रितये पूर्व जायते न सुदर्शनः ।। ६३ पञ्चाक्षं सञ्जिनं हित्वा परेषु द्वादशेष्वपि । उत्पद्यते न सदष्टिमिथ्यात्वबलभाविष ॥ ६४ वीतरागं सरागं च सम्यक्त्वं कथितं द्विधा । विरागं क्षायिकं तत्र सरागमपरे द्वयम् ॥ ६५ संवेगप्रशमास्तिक्यकारुण्यव्यक्तिलक्षणम । सराग पटभिज्ञेयमपेक्षालक्षणं परम निसर्गाधिगमो हेतू तस्य बाह्यावदाहृतौ । लब्धिः कर्मसमाधीनामन्तरङ्गो विधीयते ॥ ६७ सम्यक्त्वाध्यषिते जीवे नाज्ञानं व्यवतिष्ठते । मास्वता भासिते देशे तमसः कीदृशी स्थितिः ।। ६८ पर जो सम्यक्त्व उत्पन्न होता हैं, उसे वेदक सम्यक्त्व होते हैं । शेष छह प्रकृतियोंका क्षयोपशम होनेकी अपेक्षा उसे ही क्षायोपशमिकसम्यक्त्व भी कहते है । चौदह गुणस्थानोंमेंसे आदिके तीन गुणस्थानोंको छोडकर ऊपरके समस्त गुणस्थानोंमें मोक्षलक्ष्मीको समर्पण करनेवाले क्षायिकसम्यक्त्वका सद्भाव जानना चाहिये ॥५६।। चौथे गुणस्थानसे लेकर उपशान्तमोह नामक ग्यारहवें गुणस्थान तक आदिका औपशमिक सम्यक्त्व पाया जाता हैं। तथा वेदकम्यक्त्व चौथे, पाँचवें, छ और सातवें गुणस्थान में पाया जाता है ।।५७॥ साध्य और साधनके भेदसे सम्यक्त्व दो प्रकारका कहा गया है। क्षायिकसम्यक्त्व साध्यरूप हैं और शेष दोनों सम्यक्त्व साधनरूप हैं ।।५८॥ पहली रत्नप्रभा पृथ्वीके नारकियोंके भवभ्रमणके नाशक तीनों ही सम्यक्त्व पाये जाते है। किन्तु शेष छह पृथिवियोंके नारकियोंके क्षायिकके विना दो ही सम्यक्त्व सन्त पुरुषों ने कहे हैं ॥५९॥ तिर्यंच और मनुष्योंके तीनों ही सम्यक्त्व हो सकते हैं। किन्तु देवांगनाओंके तथा तिर्यंचनियोंके क्षायिकसम्यक्त्व नहीं पाया जाता हैं ॥६०॥ क्षायोकशमिकसम्यक्त्व की उत्कृष्ट स्थिति छयासठ सागरोपम कही गयी है। पहलेकी अर्थात. औपशमिकसम्यक्त्वकी उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्महर्तमात्र है।शक्षायिकसम्यक्त्वकी उत्कष्ट स्थिति कुछ कम दो पूर्वकोटी वर्षसे अधिक तेतीस सागरोपम ज्ञानियोंने कही है॥६२। सम्यग्दृष्टिजीव मर कर नीचेकी छह पृथिवियोंमें, सभी प्रकारको स्त्रियोंमें, और अपर्याप्त जीवोंमें उत्पन्न नहीं होता हैं ।। ६३।। चौदह जीवसमासोंमेंसे संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त और अपर्याप्त इन दो जीवसमासोंको छोडकर मिथ्यात्वके बलसे होनेवाले शेष बारह जीवसमासोंमें सम्यग्दृष्टि जीव नहीं उत्पन्न होता हैं।.६४।। ज्ञानियोंने सम्यक्त्व दो प्रकारका कहा हैं-वीतरागसम्यक्त्व और सरागसम्यक्त्व । इनमें क्षायिक वीतरागसम्यक्त्व है और शेष दोनों सरागसम्यक्त्व है ॥६५।। संवेग, प्रशम, आस्तिक्य और कारुण्यभावसे व्यक्त लक्षणवाला सरागसम्यक्त्व है और उपेक्षाभाव-स्वरूप वीतरागसम्यक्त्व चतुर जनोंको जानना चाहिये ॥६६॥ उस सम्यक्त्वके निसर्ग और अधिगम ये दो बाह्य कारण कहे गये है। दर्शनमोहनीय और अनन्तानुबन्धी कर्मोके उपशम आदिकी प्राप्ति. को अन्तरंग कारण कहा गया है ॥६७।। सम्यक्त्वते सहित जीवमें अज्ञान नहीं ठहर सकता है। सूर्यसे प्रकाशमान प्रदेशमें अन्धकारकी स्थिति कैसे हो सकती हैं। ६८॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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