SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 293
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २७६ अपूर्वकरणं तस्मात्तस्मादप्यनिवृत्तिकम् । विदधाति परीणामशुद्धिकारी क्षणे क्षणे ॥। ४७ तत्राद्ये करणे नास्तिच्छेदः स्थित्यनुभागयोः । अनन्तगुणया शुद्धया कर्म बध्नाति केवलम् । ४८ द्वितीयः कुरुते तत्र किञ्चित्स्थित रसक्षयम् । शुभानामशुभानां च वर्धयन् व्हासयन्त्रसम् ॥। ४९ अन्तर्मुहूर्तिकः कालस्तेषां प्रत्येकमिष्यते 1 आदिमे कुरुते तस्मिन्नान्तरं करणं परम् ॥ ५० प्रशमय्य ततो भव्यः कर्मप्रकृतिसप्तकम् । अन्तमुहूतिकं पूर्वं सम्यक्त्वं प्रतिपद्यते ।। ५१ अन्तरे करणे तत्र युक्त्वाऽनन्तानुबन्धिभिः । अन्तर्मुहूर्त कालेन मिथ्यात्वमपवर्तते ।। ५२ मिथ्यात्वं भिद्यते भेदः शुद्धाशुद्धविमिश्रितैः । ततः सम्यक्त्व मिथ्यात्वसम्य‌मिध्यात्वनामभिः ||५३ क्षपयित्वा परः कश्चित्कर्मकृप्रतिसप्तकम् । आदत्ते क्षायिकं पूतं सम्यक्त्वं मुक्तिकारणम् ।। ५४ प्रशमे कर्मणां षष्णामुदयस्य क्षये सति । आदत्ते वेदकं वन्द्यं सम्यक्त्वस्योदये सति ।। ५५ आदिमं त्रितयं हित्वा गुणेषु सकलेष्वपि । सम्यक्त्वं क्षायिकं ज्ञेयं मोक्षलक्ष्मीसमर्पकम् ।। ५६ श्रावकाचार-संग्रह जीव अन्त: कोडाकोडीप्रमाण कर्मस्थिति सत्त्वके रह जाने पर अधः प्रवृत्तकरणको करता है, पश्चात् प्रतिसमय अपूर्व-अपूर्व परिणामोंको प्राप्त हुआ अपूर्वकरणको करके सम्यक्त्वप्राप्ति किये विना नहीं लौटनेवाले ऐसे अनिवृत्तिकरणको धारण करके अन्तर्मुहूर्त शुद्ध परिणामोंको धारण करता है ।।४४-४७।। क्ष उपर्युक्त तीनों करणों में से पहले अधःकरण में किसी भी कर्मकी स्थिति और अनुभागका विच्छेद नहीं होता हैं, केवल वह अनन्तगुणी विशुद्धिसे पुण्य प्रकृतिरूप कर्मको बाँचता हैं । दूसरा अपूर्वकरण शुद्ध कर्मोंके रसको बढाता हुआ और अशुभ कर्मो के रसको घटाता हुआ पाप कर्मोकी स्थिति और रसका कुछ क्षय करता हैं । उपर्युक्त प्रत्येक करणका काल अन्तर्मुहूर्तप्रमाण कहा गया है । इनमें से आदिके करणमें यह जीव अन्तरकरण करता है ।।४८- ५० ।। विशेषार्थ - यहाँ जो यह कहा गया हैं कि आदिके करणमें जीव अन्तरकरण करता है, सो यह कथन सिद्धान्तशास्त्रोंके विरुद्ध हैं, क्योंकि उनमें स्पष्ट कहा गया हैं- 'अणियअद्धाए संखेज्जेसु भागेसु गदेसु अंतरं करेदि ' ( कसा पाहुडसुत्त १० । ९३ ) अर्थात् तीसरे अनिवृत्तिकरणके संख्यात भागोंके व्यतीत होने पर जीव अन्तरकरण करता हैं । विवक्षित कर्मकी अधस्तन और उपरितन स्थितियोंको छोडकर मध्यवर्ती अन्तर्मुहूर्त प्रमाण स्थितियोंके निषेकोंका करणपरिणामोंसे अभाव करनेको अन्तरकरण कहते हैं । ( विशेष के लिए देखें कसायपाहुडसुत. पृ. ६२६ ) सम्यक्त्व के अभिमुख हुआ जीव उस अन्तरकरण के समयमें अन्तर्मुहूर्तकालके द्वारा अनन्तानुबन्धी कषायोंके साथ मिथ्यात्वकर्मका अपवर्तन करता है ।।५१|| इस अन्तरकरण के समय होनेवाले विशुद्धपरिणामोंके द्वारा मिथ्यात्वकर्मके शुद्ध, अशुद्ध और मिश्र रूप से सम्यक्त्वप्रकृति, मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व नामवाले तीन टुकडे कर देता हैं ।। ५२ ।। तदनन्तर वह जीव अनन्तानुबन्धी कषायचतुष्क और दर्शनमोहके उक्त तीन विभाग, इन सातों कर्मप्रकृतियों का उपशम करके अन्तर्मुहूर्तकाल की स्थितिवाले प्रथमोपशम सम्यक्त्वको प्राप्त होता है । ५३ ।। तदनन्तर कोई निकट संसारी भव्य उक्त सातों कर्म प्रकृतियों का क्षय करके मुक्तिका कारण क्षायिकसम्यक्त्वको ग्रहण करता है ॥ ५४ ॥ कोई जीव उक्त सात कर्मोंमेंसे छह कर्मो का उपशम और शदयाभावी क्षय होने पर वन्दनीय वेदक सम्यक्त्वको ग्रहण करता हैं ॥ ५५ ॥ भावार्थ- वर्तमानकालमें उदय आने योग्य कर्म निषेकोंका उदयाभावी क्षय और आगामी कालमें उदय आनेके योग्य निषेकोंका सदवस्थारूप उपशम होने पर, तथा सम्यक्त्वप्रकृतिका उदय होने www.jainelibrary.org, Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy