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________________ अमितगतिकृतः श्रावकाचारः २७५ दोहबाहाङ्कनाच्छेवशीतवातादिगोचराः । परायत्तेषु तिर्यक्ष विवेकरहितात्मतु ॥ ३३ दैन्यदारिद्रयदौर्भाग्यरोगशोकपुरस्सगः । आर्यम्लेच्छप्रकारेषु मानुषेषु निरन्तराः ॥ ३४ स्वस्य हानि परद्धिमीक्षमाणेष मानिषु । योज्यमानेषु देवेषु हठतः प्रेष्यकर्मणि ॥ ३५ मिथ्यात्वेन दुरन्तेन विधीयन्ते शरीरिणाम् । वेदना दुःश्रवा भीमा वैरिणेव दुरात्मना ।। .६ यान्यन्यान्यपि दुःखानि संसाराम्भोधिवर्तिनाम् । न जातु यच्छता तेन मिथ्यात्वेन विरम्यते ।। ३७ विवेको हन्यते येन मूढता येन जन्यते । मिथ्यात्वतः परं तस्माद्दुःखद किम विद्यते ।। ३८ लब्धं जन्मफलं तेन सार्थकं तस्य जीवितम् । मिथ्यात्वविषमुत्सुज्य सम्यक्त्वं येन गृह्यते ।। ३९ भव्यः पञ्चेन्द्रियः पूणो लब्धकालादिलब्धिकः । पुद्गलार्धपरावर्ते काले शेषे स्थिते सति ।। ४० अन्तर्मुहूर्तकालेन निर्मलीकृतमानसः । आद्यं गण्हाति सम्यक्त्वं कर्मणां प्रशमे सति ।। ४१ निशीथं वासरस्येव निर्मलस्य मलीमसम् । पश्चादायाति मिथ्यात्वं सम्यक्त्वस्यास्य निश्चितम् ॥४२ तस्य प्रपद्यते पश्चान्महात्मा कोऽपि वेदकम् । तस्यापि क्षायिकं कश्चिदासन्नीभूत निर्वृतिः ॥ ४३ लब्धशुद्धपरीणाम: कल्मषस्थितिहानिकृत् । अनन्त गुणया शुद्धया वर्धमानः क्षणे क्षणे ॥ ४४ प्रकृतीनामस्तानामनुभागस्य खर्वकः । वर्धकः पुनरन्यासां युक्तायुक्तविवेचकः ।। ४५ स्थितेऽन्तकोटिकोटोकस्थितिके सति कर्मणि । अध.प्रवृत्तिकं नाम करणं कुरुते पुरा ।। ४६ भोगना पडते है। इसी मिथ्यात्त्रके द्वारा नाना प्रकारके आर्य और म्लेच्छ मनुष्योंमें निरन्तर दोनता, दरिद्रता, दुर्भाग्य, रोग और शोक आदिके नाना दुःखोंको भोगना पडता हैं। तथा इसी मिथ्यात्वके द्वारा देवोंमें उत्पन्न हो करके भी परस्पर एक दूसरेकी ऋद्धिको देखकर ईर्ष्याभाव उत्पन्न होनेसे और दासकर्ममें हठात् नियुक्त किये जानेपर अपने अपमानको देखकर उन अभि. मागी देवोंमें दुःसहदुःख देखे जाते है। इस प्रकार इस दुरात्मा दुरन्त दुखदायी महान् शत्रु मिथ्यात्वके द्वारा जीवोंको चारों ही गतियोंमें दुःसह भयंकर वेदनाएँ दी जाती हैं।।३२.३६॥ संसाररूपी समुद्रमें पड़े हुए जीवोंको अन्य जितने भी दुःख भोगना पडते हैं, उन सबको देता हुआ यह मिथ्यात्व कभी भी विश्राम नहीं लेता हैं, अर्थात् निरन्तर महादुःखोंको देता ही रहता है ॥३७॥ जिस मिथ्यात्वसे विवेक नष्ट होता है और मूढता उत्पन्न होती हैं, उस मिथ्यात्वसे बढकर और दुःखदायी संसारमें क्या है, अर्थात् मिथ्यात्वसे बढकर संसारमें दुःखदायी और कोई भी पदार्थ नहीं है ।।३८।। जिस जीवने ऐसे भयंकर मिथ्यात्वरूपी विषको छोडकर सम्यक्त्वको ग्रहण किया है,उसका जीवन सार्थक है और उसीने जन्मका फल प्राप्त किया है । ३९॥ संसारमें परिभ्रमणका काल अर्धपुद्गलपरिवर्तनप्रमाग शेष रह जाने पर भव्य, पंचेन्द्रिय, पर्याप्तक और काललब्धि आदिको पानेवाला जीव अन्तर्मुहर्तकालके द्वारा अपने मानसको निर्मल करके सम्यग्दर्शनके निरोधक कर्मोके उपशम होने पर आद्य औपशमिक सम्यक्त्वको ग्रहण करता हैं ॥४०-४१।। जैसे निर्मल दिनके पश्चात् अवश्य ही मलीमस रात्रि आती हैं, उसी प्रकार इस औपशमिकसम्यक्त्वके अन्तमुंहूर्त पश्चात् मिथ्यात्व अवश्य उदयको प्राप्त होता हैं, यह निश्चित है ।।४२।। तत्पश्चात् कोई महान् आत्मा वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त होता हैं और कोई अतिनिकट भव्य क्षायिकसम्यक्त्वको प्राप्त होता हैं ।।४३।। जब यह जीव सम्यक्त्वको प्राप्त करनेके सन्मुख होता है, तब प्रतिक्षण अनन्तगुणी विशुद्धिसे वर्धमान विशुद्ध परिणामवाला होता है, पापप्रकृतियोंकी स्थितिको प्रतिक्षण हीन करता हैं, अप्रशस्त प्रकृतियोंके अनुभागको प्रतिक्षण घटाता हैं और प्रशस्त प्रकृतियों के अनुभागको प्रतिक्षण बढाता है और योग्य अयोग्यका विवेचक बनता हैं। उक्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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