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श्रावकाचार-संग्रह
सस्यानीवोषरक्षेत्रे निक्षिप्तानि कदाचन । न व्रतानि प्ररोहन्ति जीवे मिथ्यात्ववासिते ॥ २२ मिथ्यात्वेनानु विद्धस्य शल्येनेव महीयसा । समस्तापन्निदानेन जायते निर्वतिः कुतः ।। २३ षोढानायतनं जन्तोः सेवमानस्य दुःखदम् । अपथ्यमिव रोगित्वं मिथ्यात्वं परिवर्धते ।। २४ मिथ्यादर्शनविज्ञानचारित्रः सह भाषिताः । तदाधारा जनाः पापा: षोढाऽनायतनं जिनः ।। २५ एकैकं वा त्रयो द्वद्वे रोचन्ते न परे त्रयः । एकस्त्रीणीति जायन्ते सप्ताप्येते कुदर्शनाः ।। २६ दवीयः कुरुते स्थान मिथ्यादृष्टिरभीप्सितम् । अन्यत्र गमकारीव घोरैर्युक्तो व्रतैरपि ।। २७ न मिथ्यात्वसमः शत्रुन मिथ्यात्वसमं विषम् । न मिथ्यात्वसमो रोगो न मिथ्यात्वसमं तमः ।।२८ द्विषद्विषतमोरोगवुःखमेकत्र जायते । मिथ्यात्वेन दुरन्तेन जन्तोर्जन्मनि जन्मनि ।। २१ वरं ज्वालाकुले क्षिप्तो देहिनाऽऽत्मा हुताशने । न तु मिथ्यात्वसंयुक्तं जीवितव्यं कथञ्चन ।। ३० पापे प्रवर्त्यते येन येन धर्मानिवर्त्यते । दुःखे निक्षिप्यते येन तन्मिथ्यात्वं न शान्तये ॥ ३१ क्षेत्रस्वभावगो घोरा निरन्ता दुःसहाश्चिरम् । विविधा दुर्दशा: श्वभ्रे कायमानससम्भवाः ।। ३२
ऊसर भूमिवाले खेतमें बोये गये धान्य कभी भी नहीं उपजते है, उसी प्रकार मिथ्यात्वसे वासित जीवमें व्रत भी अंकुरित नहीं होते हैं ।।२२।। जैसे महान् शल्यसे अनुबिद्ध पुरुषके सुखकी प्राप्ति नहीं होती, उसी प्रकार समस्त आपत्तियोंके निधानभूत मिथ्यात्वसे संयुक्त पुरुषके निवृति (मुक्ति) का सुख कैसे प्राप्त हो सकता है ।।२३।। जैसे अपथ्यके सेवन करनेवाले मनष्यके दुःखदायी रोगपना उत्तरोत्तर बढता है, उसी प्रकार छह प्रकारके अनायतनों (अधर्म के स्थानों के सेवन करनेवाले पुरुषके दुःखदायी मिथ्यात्व भी उत्तरोत्तर बढता है ।।२४।। मिथ्या दर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र इन तीनोंके साथ इनके आधारभूत पापी मनुष्य, ये छह अनायतन जिनदेवने कहे हैं ॥२५॥ सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र इन तीनोमेंसे एक-एकको नहीं माननेवाले तीन मिथ्यादृष्टि, तथा उनमेंसे किन ही दो-दोको नहीं माननेवाले तीन मिथ्यादृष्टि और तीनोंको ही नहीं माननेवाले एक मिथ्यादृष्टि इस प्रकारसे सात प्रकारके मिथ्यादृष्टि जानना चाहिये ।।२६।। जैसे अन्यत्र अर्थात् विपरीत दिशामें गमन करनेवाला जीव अपने अभीष्ट स्थानको और भी दूर करता जाता है, उसी प्रकार अति कठिन घोर व्रतोंके आचरणसे युक्त भी मिथ्यादृष्टि पुरुष अपने मुक्ति स्थानको और भी अत्यन्त दूर करता जाता है ॥२७॥ संसारमें इस जीवका मिथ्यात्वके समान कोई शत्रु नहीं, मिथ्यात्वके समान कोई विष नहीं, मिथ्यात्वके समान कोई रोग नहीं और मिथ्यात्वके समान कोई अन्धकार नहीं हैं ॥२८॥ शत्रु, विष, अन्धकार और रोग,इनके द्वारा एक भवमें ही दुःख दिया जाता है, किन्तु इस दुरन्त मिथ्यात्वके द्वारा जन्म-जन्ममें जीवको महान् दु:ख दिया जाता है ।।२९।। भयंकर ज्वालाओंसे व्याप्त अग्निमें किसी जीवात्माका फेंका जाना भला हैं, किन्तु मिथ्यात्वसे संयुक्त जीवितव्य तो किसी भी प्रकारसे भला नहीं है।३०।। जिस मिथ्यात्वके द्वारा जीव पापमें प्रवृत्त कराया जाता है, धर्मसे दूर हटाया जता है, तथा दुख में फेंका जाता है, वह मिथ्यात्व कभी भी जीवकी शान्तिके लिए नहीं हो सकता है ॥३१॥
इस दुरन्त दुःखदायी मिथ्यात्वके द्वारा जीवोंको नरकोंमें क्षेत्रस्वभावसे होनेवाले घर कायिक और मानसिक अकथनीय नाना प्रकारके दुःसह दुःख चिरकाल तक निरन्तर सहना पडते हैं। इस मिथ्यात्वके द्वारा ही विवेकरहित जीवन बितानेवाले पराधीन तिर्यचोंमें भी दाह देना, बाँधना, चिन्ह करना, अंग छेदना और शीत वात आदिसे होनेवाले नानाप्रकारके भयंकर दुख:
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