SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 290
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अमितगतिकृतः श्रावकाचारः २७३ अतथ्यं मन्यते तथ्यं विपरीतरुचिर्जनः । दोषातुरमनास्तिक्तं ज्वरीव मधुरं रसम् ॥ १० शीनो निसर्गमिथ्यात्वस्तत्त्वातत्त्वं न बुद्धयते । सुन्दरासुन्दरं रूपं जात्यन्ध इव सर्वदा ।। ११ देवो रागी यतिः सङ्गी धर्मः प्राणिशुनिम्भनम् । मूढदृष्टिरिति ब्रूते युक्तायुक्ताविवेचकः ।। १२ सप्तप्रकारमिथ्यात्वमोहितेनेति जन्तुना । सर्व विषाकुलेनेव विपरीतं बिलोक्यते ।। १३ । न तत्त्वं रोचते जीवः कथ्यमानमपि स्फुटम् । कुधीरुक्तंमनुक्तं वा निगसर्गेण पुनः परम् ॥ १४ पठन्नपि वचो जनं मिथ्यात्वं नैव मुञ्चति । कुदृष्टि: पन्नगो दुग्धं पिबन्नपि महाविषम् ।। १५ उदये दृष्टिमोहस्य मिथ्यात्वं दुःखकारणम् । घोरस्य सन्निपातस्य पंचत्वमिव जायते ।। १६ बहु बध्नाति यः कर्म स्तोकं भुंक्ते कुदर्शनः । स भवारण्यट्ठःखेभ्यो विमोक्षं लप्स्यते कथम ।। १७ अलि पचमानस्य पुरुषस्य दिने दिने। धान्यस्य गृण्हतः खारी कदा धान्यविमुक्तता ।। १८ न वक्तव्यमिति प्रा. कदाचन यतो भवी । कर्म भक्त बहु स्तोकं स्वीकरोति विसंशयम् ।। १९ अन्यथैकेन जीवेन सर्वेषां कर्मणां ग्रहे । सर्वेषां जायतेऽन्येषां न कथं मुक्तिसङ्गतिः ।। २० समस्तानां तथैकेन पुद्गलानां ग्रहेंऽङ्गिना । अनन्तानन्तकालेन न बन्धः सान्तरः कथम् ।। २१ जैसे कि चमडेके टुकडोंसे भरे हुए मुखवाला चमारका कुत्ता वास्तविक भोजनको नहीं खा पाता है। यह गहीत मिथ्यादष्टि है।.९।। जैसे वात-पित्तादि दोषोंसे पीडित चित्तवाला ज्वरवान मनुष्य मधुर रसको भी कटुक मानता हैं, इसी प्रकार विपरीत श्रद्धानी मनुष्य अतथ्य भी पदार्थको तथ्य मानता है। यह विपरीत मिथ्यादष्टि है ।।१०।। जैसे जन्मान्ध मनुष्य सुन्दर और असून्दर रूपको सर्वथा ही नहीं जानता है, इसी प्रकार निसर्गमिथ्यात्वसे दूषित दीन पुरुष तत्त्व और अतत्त्वको नहीं समझता है । यह निसर्गमिथ्यात्वका स्वरूप है ।११। योग्य अयोग्यके विवेकसे रहित मूढदृष्टि मनुष्य सरागी पुरुषको देव, परिग्रही व्यक्तिको गुरु और प्राणि-घातको धर्म कहता हैं । यह मूढ मिथ्यादृष्टि हैं ।।१२।। इन सात प्रकारके मिथ्यात्वोंसे मोहित प्राणी सर्व वस्तुतत्त्वको विपरीत ही देखता हैं । जैसे कि विषसे आकुलित पुरुषको सभी कुछ विपरीत दिखता हैं । १३॥ कुबुद्धि पुरुष यथार्थ रीतिसे स्पष्ट कहे गये तत्त्वका भी श्रद्धान नहीं करता हैं। किन्तु उक्त या अनुक्त तत्त्वका स्वभावसे ही श्रद्धान करता है ॥१४।। मिथ्यादृष्टि मनुष्य जैन वचनको पढता हुआ भी मिथ्यात्वको नहीं छोडता हैं । जैसे कि दुग्धको पीता हुआ भी सर्प अपने महाविषको नहीं त्यागता है ।।१५।। दर्शनमोहनीयकर्मके उदय होने पर दुःखोंका कारण मिथ्यात्व प्रकट होता है। जैसे कि घोर सन्निपातके होने पर जीवके मरण प्राप्त होता है ।।१६॥ __जो मिथ्यादृष्टि बहुत कर्मको बाँधता हैं और अल्पकर्मको भोगता है, वह भव-काननके दुःखोंसे कैसे छूट सकेगा ।।१७।। जैसे प्रतिदिन अंजली प्रमाण धान्यको खानेवाले और खारी प्रमाण धान्यको ग्रहण करनेवाले मनुष्यके धान्यका बीतना कब हो सकता हैं ।।१८। । ऐसी अशंका करनेवालेके लिए आचार्य उत्तर देते है-ज्ञानी जनोंको ऐसा नहीं कहना चाहिये, क्योंकि जीवके परिणामोंकी विशुद्धिके योगसे कदाचित् ऐसा भी अवसर आता हैं, जबकि वह निःसन्देह रूपसे बहुत कर्मको भोगता है और अल्प कर्मको स्वीकार करता हैं ॥१९।। यदि ऐसा न माना जाय, तो एक जीवके द्वारा सर्व कर्मोके ग्रहण करने पर शेष अन्य सर्व जीवोंके मुक्तिकी प्राप्ति कैसे संगत नहीं होगी ।।२०।। इसी प्रकार एक जीवके द्वारा समस्त कर्मपुद्गलोंके ग्रहण करने पर अनन्तानन्तकालके द्वारा भी बन्ध अन्तर-सहित कैसे नहीं होगा ।।२१।। जिस प्रकार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy