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________________ २७८ श्रावकाचार-संग्रह न दुःखबीजं शुभवर्शनक्षितो कदाचन क्षिप्तमपि प्ररोहति । सदाऽप्यनुप्तं सुखबीजमुत्तमं कुदर्शनी तद्विपरीतमीक्षते ॥ ६९ सम्यक्त्वमेघः कुशलाम्बु वन्दितं निरन्तरं वर्षति धोतकल्मषः । मिथ्यात्वमेघो व्यसनाम्बु निन्दितं जनावनो क्षालितपुण्यसञ्चयः ।। ७० न भीषणो दोषगणः सुवर्शने विगर्हणीयः स्थिरतां प्रपद्यते । मुजङ्गमानां निवहोऽवतिष्ठते सवा निवासेऽध्यषिते गरुत्मता ।। ७१ विवर्धमाना यमसंयमादयः पवित्रसम्यक्त्वगुणेन सर्वदा। फलन्ति हृद्यानि फलानि पादपा महोबकेनेव मलापहारिणा ।। ७२ निषेवते यो विषयाभिलाषको निरस्य सम्यक्त्वमधीः कुदर्शनम् । स राज्यमत्यस्य मुजिष्यतां स्फुटं बहावकाझी वृणुते दुराशयः ॥ ७३ तथ्ये धर्मे ध्वस्तहिंसाप्रपञ्चे देवें रागद्वेषमोहादिमुक्ते । साधौ सर्वग्रन्थसन्दर्भहीने संवेगोऽसौ निश्चलो योऽनुरागः ।। ७४ देहे मोगे निन्दिते जन्मवासे कृष्टेष्वासक्षिप्तबाणास्थिरत्वे । यवैराग्यं जायते निष्प्रकम्पं निर्वेगोऽसौ कथ्यते मुक्तिहेतुः ।। ७५ कान्तापुत्रभ्रातृ मित्रादिहेतोः शिष्टद्विष्टे निर्मिते कार्यजाते। पश्चात्तापो यो विरक्तस्य पुंसो निन्दा सोक्ताऽवद्यवृक्षस्य दात्री ।। ७६ सम्यग्दर्शनरूप शुभ भूमिमें गिरा हुआ भी दूःखरूप बीज कदाचित् भी अकुरित नहीं ह ता हैं । और विना बोया गया भी सुखरूप बीज सदा ही अंकुरित होता है । किन्तु मिथ्यादर्शनरूप अशुभभूमिमें इससे विपरीत देखा जाता है । अर्थात् मिथ्यादृष्टिके दुःखरूप बीज विना बोये भी उगते है और सुखरूप बीज बोये जानेपर भी नहीं उगते है ॥६९॥ कल्मष पापोंको धोनेवाला सम्यक्त्वरूपी मेघ वन्दनीय कल्याणकारी जलकी निरन्तर वर्षा करता है। किन्तु पुण्यके संचयको धोनेवाला मिथ्यात्वरूपी मेघ निन्दनीय दुःखदायी जलको जनरूप भूमिमें निरन्तर बरसाता रहता हैं ॥७०॥ सम्यग्दर्शनके सद्भावमें भीषण एवं निन्दनीय भी दोषोंका समूह स्थिरताको नहीं प्राप्त होता है। गरुडसे सेवित स्थान पर साँपोंक समुदाय क्या कभी ठहर सकता है,अर्थात् कभी नहीं ठहर सकता ॥७॥ पवित्र सम्यक्त्वरूप गुणसे सिंचित यमनियमं संयमादिक सदा बढते रहते है। जैसे मलको दूर करनेवाले मेघके जलसे सिंचित वृक्ष सदा मनोहर फलोंको फलते रहते है।।७२।। जो कुबुद्धि विषयाभिलाषी होकर और सम्यक्त्वको दूर कर मिथ्यादर्शनका सेवन करता है, वह दुष्टचित्त पुरुष राज्यको छोडकर और महत्त्वाकांक्षी बनकर सेवकवृत्तिको अंगीकार करता हैं ॥७३॥ अब आचार्य संवेगादिक गुणोंका वर्णन करते है-हिंसा पापके विस्तारसे रहित अहिंसामयी सत्य धर्ममें, राग द्वेष और मोहादिसे रहित देवमें और सर्व प्रकारके परिग्रहके सन्दर्भसे रहित साधुमें जो निश्चल अनुराग होता है, वह संवेग कहलाता है ।।७४।। निन्दनीय शरीरमें, भोगम और कान तक खींचकर शीघ्र छोडे गये बाणके समान अस्थिर संसारमें जो निष्प्रकम्प वैराग्य होता हैं, वह मुक्तिका हेतु निर्वेद कहलाता है ॥७५।। स्त्री, पुत्र, भाई, मित्र आदिके निमित्तसे राग-द्वेषरूप कार्योंके हो जानेपर उनसे विरक्त हुए पुरुषके हृदयमें जो पश्चात्ताप होता है, वह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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