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________________ २१२ श्रावकार-संग्रह एकं पदं बहुपदापि बदासि तुष्टा वर्णात्मिकापि च करोषि न वर्णमाजम् । सेवे तथापि भवतीमथवा जनोऽर्थी दोषं न पश्यति तदस्तु तवैष दीपः ।। ७११ (इति दीपम्) चक्षः परं करणकन्दरितेऽर्थे मोहान्धकारविधती परमः प्रकाशः । तद्धामगामिपथवीक्षणरत्नदीपस्त्वं सेव्यसे तदिह देवि जनेन धूपैः ।। ७१२ (इति धूषम्) चिन्तामणित्रिदिवधनुसुरतमाद्याः पुंसा मनोरथपथप्रथितप्रभावाः। भावा भवन्ति नियतं तव देवि सम्यक्सेवाविधेस्तदिदमस्तु मुदे फलं ते ।। ७१३ (इति फलम्) कलधौतकमलमौक्तिकदुकूलमणिजालचामरप्रायः । आराधयामि देवी सरस्वती सकलमङ्गलैमविः ॥ ७१४ स्याद्वावभूधरभवा मुनिमाननीया देवैरनन्यशरणैः समुपासनीया। स्वान्ताधिताखिलकलङ्कहरप्रवाहा वागापगास्तु मम बोधगजावगाहा ।। ७१५ मुर्धाभिषिक्तोऽभिषवाज्जिनानामर्योऽर्चनात्संस्तवनात् स्तवाहः । जपी जपावधानविधेरबाध्यः श्रुताश्रितश्रीः श्रुतसेवनाच्च ।। ७१६ होनेसे परतन्त्र भी होता है। किन्तु केवलज्ञान होने पर बही वाणी स्पष्ट,स्वतन्त्र और निराकार रूपमें अवतरित होती हैं । सच है वस्तुओंकी गति बडी विचित्र हैं उस वाणीको मै चरुसे पूजता हूँ ॥७१०।। हे जिनवाणी माता! आप बहुत पदवाली होनेपर भी सन्तुष्ट होनेपर एक पद देती है, वर्णात्मक होनेपर भी वर्ण प्रधान नहीं करती, इस तरह आप बहुत कृपण हैं,फिर भी मै आपकी सेवा करता हूँ; क्योंकि अर्थी मनुष्य दोष नहीं देखता । यह विरोधाभास अलंकार है। इसका परिहार इस तरह है। द्वादशांग रूप जिनवाणीके पदोंकी संख्या एक सौ बारह करोड तेरासी लाख अट्ठावन हजार पाँच है । अतः वह वहुपदा है । और उसके द्वारा एक पद-अद्वितीय मोक्ष प्राप्त होता है। तथा वह जिनवाणी अक्षरात्मक है मगर आत्माको ब्राह्मणादि वर्गोसे मुक्त कर देती हैं। अतः मै उसे दीप अर्पित करता हूँ ॥७११।। हे देवी स• स्वती! गुफाके समान इन इन्द्रियोंसे दूरवर्ती पदार्थको देखने के लिए आप चक्षु के समान है, अर्थात् जो पदार्थ इन्द्रियोंके अगोचर है उन्हें जिनवाणोके प्रसादसे जाना जा सकता है,और मोहरूपी अन्धकारको नष्ट करनेके लिए आप परम प्रकाशके तुल्य हैं । तथा मोक्ष महलको जानेवाले मार्गको दिखाने के लिए आप रत्नमयी दीपक है। इस लिए लोग धूपसे आपका पूजन करते है ॥७१२ । हे देवि! आपकी विधिपूर्वक सेवा करनेसे मनुष्योंके मनोरथोंको पूर्ण करनेवाले चिन्तामणि रत्न, कामधेनु और कल्पवृक्ष आदि पदार्थ नियमसे प्राप्त होते हैं अतः यह फल आपकी प्रसन्नताके लिए हो ।।७१३।। मै स्वर्गक मल, मोती, रेशमी वस्त्र, मणियोंका समूह और चमर वगैरह मांगलिक पदार्थोसे सरस्वती देवीकी आराधना करता हूँ।।७१४।। स्याद्वादरूपी पर्वतसे उत्पन्न होनेवाली, मुनियोंके द्वारा आदरणीय, अन्यकी शरणमें न जानेवाले देवोंके द्वारा सम्यक् रूपसे उपासनीय और जिसका प्रवाह अन्तःकरणके समस्त दोषोंको हरनेवाला हैं, ऐसी वाणीरूपी नदी मेरे ज्ञानरूपी हाथीके अवगाहनके लिए हो, अर्थात् मै ज्ञान-द्वारा उस जिनवाणीका अवगाहन करूँ-उसमें डुबकी लगाऊँ ।।७१५।। जिनभगवान्का अभिषेक करनेसे मनुष्य मस्तकाभिषेकका पात्र होता है, पूजा करनेसे पूजनीय होता हैं, स्तवन करनेसे स्तवनीय (स्तवन किये जानेके योग्य) होता है, जपसे जप किये जाने के योग्य होता है, ध्यान करनेसे बाधाओंसे रहित होता हैं और श्रुतकी सेवा (स्वाध्यायादि) करनेसे महान् शास्त्रज्ञ होता है।।७१६।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org ..
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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