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________________ यशस्तिलकबम्पूगत-उपासकाध्ययन ___ २१३ २१३ दृष्टस्त्वं जिन सेवितोऽसि नितरां भावैरनन्याश्रयः स्निग्धस्त्वं न तथापि यत्समविधिर्भक्ते विरक्तेऽपि च । मच्चेत्तः पुनरेतदीश भवति प्रेमप्रकृष्टं ततः । कि भाषे परभत्र यामि भवतो भूयात्पुनदर्शनम् ।। ७१७ पर्वाणि प्रोष धान्याहुर्मास चत्वारि तानि च । पूजाक्रियावताधिक्याद्धर्मकर्मात्र बहयेत् ॥ ७१८ रसत्यागेकभक्तकस्थानोपवसनक्रियाः । यथाशक्तिविधेया: स्युः पर्वसन्धौ च पर्वणि ॥ ७१९ तन्नरन्तर्यसान्ततिथितीर्थक्षपूर्वकः । उपवासविधिश्चित्रश्चिन्त्य: श्रुतसमाश्रयः ॥ ७२० स्नानगन्धाङ्गसंस्कारभूषायोषाविषक्तधीः । निरस्तसर्वसावधक्रियः संयमतत्परः ॥ ७२१ देवागारे गिरौ चापि गहे वा गहनेऽपि वा । उपोषितो भवेन्नित्यं धर्मध्यानपरायणः ॥ ७२२ तोपवासस्य बव्हारम्भरतात्मनः । कायक्लेश: प्रजायेत गजस्नानसमक्रियः ।। ७२३ अनवेक्षाप्रतिलेखनदुष्कर्मारम्भदुर्मनस्काराः । आवश्यकविरतियुताश्चतुर्थमेते विनिघ्नन्ति ॥ ७२४ विशुद्धनान्तरान्माय कायक्लेशविधि विना । किमग्नेरन्यदस्तीह काञ्चनाश्मविशुद्धये ॥ ७२५ हे जिनेन्द्र! मैने तुम्हारा दर्शन किया और जिनका अन्य आश्रय नहीं हैं ऐसे भावोंसे तुम्हारी अतिशय सेवा (पूजा) की । यद्यपि हे प्रभो, तुम राग-द्वेषसे रहित होनेके कारण निस्नेह हो, तथापि भक्तमें और विरक्तमें तुम्हारा समभाव है अर्थात् जो तुम्हारी सेवा करता हैं उससे तुम्हें राग नहीं है और जो तुम्हारी सेवा नहीं करता, उससे द्वेष नहीं है। फिर भी मेरा यह चित्त हे स्वामिन्! आपके प्रति प्रेमसे भरा हैं । अधिक क्या कहूँ अब मैं जाता हूँ। मुझे आपका पुनः दर्शन प्राप्त हो ॥७१७। प्रोषधोपवास व्रतका स्वरूप-प्रोषध पर्वको कहते है। वे पर्व प्रत्येक मासमें चार होते हैं। इन पर्वोमें विशेष पूजा, विशेष क्रिया और विशेष ब्रतोंका आचरण करके धर्म-कर्मको बढाना चाहिए ॥७१८॥ पर्व तथा पर्वके सन्धि दिनोंमें रसोंका त्याग, एकाशन, एकान्त स्थल में निवास, उपवास आदि क्रियाएँ यथाशक्ति करनी चाहिए ।।७१९॥ लगातार या बीचमें अन्तराल देकरके तिथि तीर्थङ्करोंके कल्याणक तथा नक्षत्र आदिका विचार करके आगमानुसार अनेक प्रकारके उपवासकी विधिको विचार लेना चाहिए । अर्थात् रसत्याग, एकभक्त, उपवास आदि कोई तो सदा करते हैं,कोई अमुक तिथिको करते है,कोई तीर्थङ्करोंके कल्याणकके दिन करते है, इस प्रकार अनेक प्रकारके उपवासकी विधिका आगमानुसार विचार कर करना चाहिए ।।७२०॥ (आगे उपवासकी विधि बतलाते है-) उपवास करनेवाला गृहस्थ स्नान, इत्र-फुलेल, शरीरकी सजावट, आभूषण और स्त्रीसे मनको हटाकर तथा समस्त सावध क्रियाओंसे विरक्त होकर संयममें तत्पर हो और देवालयमें, पहाडपर या घरमें अथवा किसी दुर्गम एकान्त स्थानमें जाकर धर्मध्यानपूर्वक अपना समय बितावे ।।७२१-७२२॥ जो पुरुष उपवास करके भी अनेक प्रकारके आरम्भोंमें फंसा रहता हैं, उसका उपवास केवल कायक्लेशका ही कारण होता हैं और उसकी क्रिया हाथीके स्नानकी तरह व्यर्थ है ।।७२३॥ बिना देखे और बिना साफ किये किसी भी पापकार्यसे युक्त आरम्भको करना, बुरे विचार लाना और सामायिक,वन्दना, प्रतिक्रमण आदि षट्कर्मोको न करना,ये काम प्रोषधोपवासव्रतके घातक है । अतः उपवासके दिन इस प्रकारकी असावधानी नहीं करनी चाहिए ॥७२४॥ (यह कहा जा सकता है कि उपवास करनेसे शरीरको कष्ट होता है और शरीरको कष्ट देनेसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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