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________________ २१४ श्रावकाचार संग्रह हस्ते चिन्तामणिस्तस्य दुःखद्रुमदवानलः । पवित्रं यस्य चारित्रेश्चितं सुकृतजन्मनः ।। ७२६ यः सकृत्सेव्यते भावः स भोगो भोजनादिकः । भूषादिः परिभोगः स्यात्पौनःपुन्येन सेवनात् ॥ ७२७ परिमाणं तयोः कुर्याच्चिसव्याप्तिनिवृत्तये । प्राप्ते योग्ये च सर्वस्मिनिच्छया नियमं भजेत् ॥ ७२८ यमश्च नियमश्चेति द्वौ त्याज्ये वस्तुनि स्मृतौ । यावज्जीवं यमो ज्ञेयः सावधिनियमः स्मृतः ॥ ७२९ पलाण्डुकेतकी निम्बुसुमनः सूरणादिकम् । त्यजेदजन्म तद्रूपबहुप्राणिसमाश्रयम् ॥ ७३० goddata निषिद्धस्य जन्तुसंबन्धमिश्रयोः । अवीक्षितस्य च प्राशस्तत्संख्याक्षतिकारणम् ।। ७३१ इत्थं नियतवृत्तिः स्यादनिच्छोऽप्याश्रयः श्रियाम् । नरो नरेषु देवेषु मुक्तिश्रीसविधागमः । ७३२ यथाविधि यथादेशं यथाद्रव्यं यथापात्रं यथाकालं दानं देयं गृहाश्रमंः ॥ ७३३ आत्मनः श्रेयसेऽन्येषां रत्नत्रयसमृद्धये । स्वपरानुग्रहायेत्थं यत्स्यात्तद्दानमिष्यते ।। ७३४ दातृपात्र विधिद्रव्यविशेषात्तद्विशिष्यते । यथा घनाघनोद्गीणं तोयं भूमिसमाश्रयम् ॥ ७३५ आत्माका कुछ लाभ नहीं है । अतः उपवास नहीं करना चाहिए। इस प्रकारकी आपत्ति करनेवालोंको ग्रन्थकार उत्तर देते हैं - ) शरीरको कष्ट दिये बिना शरीरमें रहनेवाली आत्मा विशुद्ध नहीं हो सकती । सुवर्ण पाषाणको शुद्ध करके उसमें से सोना निकालनेके लिए क्या अग्निके सिवा दूसरा कोई उपाय है ? अग्निमें तपानेसे ही सोना शुद्ध होता हैं, वैसे ही शरीरको कष्ट देनेसे आत्म। विशुद्ध होती है || ७२५ ॥ जिस पुण्यात्मा पुरुषका चित्त चारित्रसे पवित्र है, चिन्तामणिरत्न उसके हाथमें है, जो दुःखरूपी वृक्षको जलानेके लिए अग्निके समान है । चारित्र ही वह चिन्तामणि रत्न है जो दुःखों को नष्ट करनेवाला हैं ||७२६ || भोगपरिभोगपरिमाणव्रत ( अब भोगपरिभोगपरिमाणव्रतको कहते है - ) जो पदार्थ एक बार ही भोगा जाता है जैसे भोजन आदिक उसे भोग कहते है । और जो बार-बार भोगा जाता हैं। जैसे भूषण आदिक उसे परिभोग या उपभोग कहते हैं ।। ७२७ ।। चित्तके फैलाव को रोकनेके लिए भोग और उपभोगका परिणाम कर लेना चाहिए। और जो कुछ प्राप्त है और प्राप्त होने के साथ-ही साथ जो सेवन करनेके योग्य है उसमें भी अपनी इच्छानुसार नियम कर लेना चाहिए ।। ७२८|| भोगपरिभोगका परिणाम दो प्रकारसे किया जाता हैं- एक यम रूपसे, दूसरे नियम रूपसे । जीवन पर्यम्त त्याग करनेको यम कहते है और कुछ समयके लिए त्याग करनेको नियम कहते है ।। ७२९ ।। प्याज आदि जमीकन्द, केतकी और नीमके फूल तथा सूरण आदि तो जीवन पर्यन्तको छोड देना चाहिए, क्योंकि इनमें उसी प्रकारके बहुत जीवोंका वास होता है || ७३०| जो भोजन कच्चा हैं या जल गया हैं, जिसका खाना निषिद्ध हैं, जो जन्तुओंसे छू गया हैं या जिसमें जन्तु जा पड़े हैं, तथा जिसे हमने देखा नहीं हैं ऐसे भोजनको खाना भोगपरिभोगपरिमाणव्रतकी क्षतिका कारण होता है | ७३१ ।। इस प्रकार जो भोगोपभोगका परिमाण करता है वह मनुष्य और देवपर्याय में जन्म लेकर बिना चाहे ही लक्ष्मीका स्वामी बनता है और मुक्ति भी उसे मिल जाती है ।।७३२ ॥ ( अब दानका वर्णन करते है - ) गृहस्थोंको विधि, देश, द्रव्य, आगम, पात्र और कालके अनुसार दान देना चाहिए ||७३३|| जिससे अपना भी कल्याण हो और अन्य ( मुनियों) के रत्नत्रय - सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रकी उन्नति हो, इस तरह जो अपनें और दूसरोंके उपकारके लिए दिया जादा हैं उसे ही दान कहते हैं ।।७३४ | | जैसे मेघोंसे बरसा हुआ पानी भूमिको पाकर विशिष्ट फलदायी हो जाता हैं वैसे ही दाता, पात्र, विधि और द्रव्यकी विशेषतासे दान में भी विशे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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