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________________ यशस्तिलचकम्पूगत-उपासकाध्ययन २१५ दातानुरागसंपन्नः पात्रं रत्नत्रयोचितम् । सत्कारः स्याद्विधिद्रव्यं तपःस्वाध्यायसाधकम् ।। ७३६ परलोकधिया कश्चित्कश्चिदहिकचेतसा । औचित्यमनसा कश्चित्सतां वित्तव्ययस्त्रिधा ।। ७६७ परलोकैहिकौचित्येष्वस्ति येषां न धीः समा। धर्मः कार्य यशश्चेति तेषामेतत् त्रयं कुतः ।। ७३८ अमयाहारभैषज्यश्रुतभेदाच्चतुर्विधम् । दानं मनीषिभिः प्रोक्तं भक्तिशक्तिसमाश्रयम् ।। ७३९ सौरूप्यमभयादाहुराहाराद्भोगवान् भवेत् । आरोग्यमौषधाज्ज्ञेयं श्रुतात्स्याच्छुतकेवली ।। ७४० अभयं सर्वसत्वानामादी दद्यात्सुधीः सदा । तद्धीने हि वृथा सर्वः परलोकोचितो विधिः ।। ७४१ बानमन्यद्भवेन्मा वा नरश्चेवभयप्रदः । सर्वेषामेव दानानां यतस्तद्दानमुत्तमम् ॥ ७४२ तेनाधीतं श्रुतं सर्व तेन तप्तं तपः परम् । तेन कृत्स्नं कृतं दानं यः स्यादभयदानवान् ।। ७४३ नवोपचारसंपन्नः समेतः सप्तभिर्गुणैः । अन्नश्चतुर्विधैः शुद्धः साधूनां कल्पयस्थितिम् ।। ७४४ प्रतिग्रहोच्चासनपादपूजाप्रणामवाक्कायमनःप्रसादाः। विधाविशुद्धिश्च नवोपचारा: कार्या मुनीनां गृहसंश्रितेन ।। ७४५ षता आ जाती हैं ।।७३५।। जो प्रेमपूर्वक दे वह दाता हैं, जो सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रसे भूषित हैं वह पात्र है। आदरपूर्वक देनेका नाम विधि है और जो तप और स्वाध्यायमें सहायक हो वही द्रव्य है ।।७३६।। सज्जन पुरुष तीन प्रकारसे अपने धनको खर्च करते है : कोई परलोकको बुद्धिसे कि परलोकमें हमें सुख प्राप्त होगा, धन खरचते है । कोई इस लोकके लिए धन खरचते हैं और कोई उचित समझकर धन खरचते है। किन्तु जिन्हें न परलोकका ध्यान हैं, न इहलोकका ध्यान है और न औचित्यका ही ध्यान है वे न धर्म कर सकते हैं न अपने लौकिक कार्य कर सकते है और न यश ही कमा सकते हैं ।।७३७।।-७३८|| बुद्धिमान् पुरुषोंने चार प्रकारका दान बतलाया है-अभयदान, आहारदान, औषधदान और शास्त्रदान । ये चारों दान अपनी शक्ति और श्रद्धाके अनुसार देने चाहिए ।।७३९।। अभयदानसे सुन्दर रूप मिलता है। आहार दानसे भोग मिलते है। औषधदानसे आरोग्य प्राप्त होता हैं और शास्त्रदानसे श्रुतकेवली होता है ॥७४०॥ सबसे प्रथम सब प्राणियोंको अभयदान देना चाहिए। क्योंकि जो अभयदान नहीं दे सकता उस मनुष्यकी समस्त पारलौकिक क्रियाएँ व्यर्थ है । ७४१ ।। और कोई दान दो या न दो, किन्तु अभयदान जरूर देना जाहिए; क्योंकि सब दानोंमें अभयदान श्रेष्ठ हैं।७४२।। जो अभयदान देता हैं, वह सब शास्त्रोंका ज्ञाता हैं, परम तपस्वी है और सब दानोंका कर्ता है। ७४३।। भावार्थप्राणिमात्रका भय दूर करके जीवनकी रक्षा करना अभयदान है । जो इस दानको करता हैं वह सब दानोंको करता हैं ; क्योंकि जीवनकी रक्षा सब चाहते हैं। सबको अपना-अपना जीवन प्रिय है । यदि जीवनपर ही संकट हो ती आहारदान या औषधदान या शास्त्रदान किस कामका। जो मनुष्य अपनेसे दूसरोंकी रक्षा नहीं कर सकता अर्थात् जो अहिंसा धर्मका पालन नहीं करता वह यदि परलीकके लिए धर्मकर्म करे भी तो वह सब व्यर्थ है। क्योंकि धर्मका मल जीवरक्षा है। यदि मूल ही नहीं तो धर्म कहाँ से हो सकता है। अतः प्राणिमात्रको यथाशक्ति जीवनदान देना ही सर्वोत्तम दान है। (अब आहारदानको कहते हैं-) सात गुणोंसे युक्त दाताने नवधा भक्तिपूर्वक साधुजनोंको अन्न, पान, खाद्य, लेद्यके भेदसे चार प्रकारका शुद्ध आहार देना चाहिए । ७४४॥ (अब नवधा भक्ति बतलाते हैं-) गृहस्थको मुनियोंकी नबधा भक्ति करनी चाहिए। सबसे पहले अपने द्वारपर मुनिको आते देख कर उन्हें आदरपूर्वक ग्रहण करना चाहिए कि स्वामिन् ! ठहरिए, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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