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________________ २१६ श्रावकाचार - संग्रह श्रद्धा तुष्टिर्भक्तिविज्ञानमलुब्धता क्षमा शक्तिः । यत्रते सप्त गुणास्तं दातारं प्रशंसन्ति ।। ७४६ तत्र विज्ञानस्येवं लक्षणम् - विवणं विरसं विद्धमसात्म्यं प्रभृतं च यत् । मुनिभ्योऽन्नं न तद्देयं यच्च मुक्तं गदावहम् । ७४७ उच्छिष्टं नीचलोका मन्योद्दिष्टं विगर्हितम् । न देयं दुर्जनस्पृष्टं देवयक्षादिकल्पितम् । ७४८ ग्रामान्तरात्समानीतं मन्त्रानीतमुपायनम् । न देयमापणक्रीतं विरुद्धं वाऽयथर्तुकम् ।। ७४९ दधिपपयोभक्ष्यप्रायं पर्युषितं मतम् । गन्धवर्णरस भ्रष्टमन्यत्सर्व विनिन्दितम् ॥ ७५० बालग्लानतपःक्षीणवृद्धव्याधिसमन्वितान् । मुनीनुपचरेत्रित्यं यथा ते स्युस्तपः क्षमाः । ७५१ शाठ्यं गर्वमवज्ञानं परिप्लवमसंयमम् । वाक्पारुष्यं विशेषेण वर्जयेद्भोजनक्षणे ॥ ७५२ अभक्तानां कदर्याणामव्रतानां च सद्मसु । न भुञ्जीत तथा साधुदैन्य कारुण्यकारिणाम् ।। ७५३ नाहरन्ति महासत्त्वाश्चित्तेनाप्यनुकम्पिताः । किन्तु ते दैन्यक्कारुण्य संकल्पोज्झितवृत्तयः ।। ७५४ धर्मेषु स्वामिसेवायां सुतोत्पत्तौ च कः सुधीः । अन्यत्र कार्यदेवाभ्यां प्रतिहस्तं समादिशेत् ।। ७५५ ठहरिए, ठहरिए । यदि वे ठहर जायें तो घरमें ले जाकर उन्हें ऊँचे आसनपर बैठाना चाहिए । फिर उनके चरणोंको धोकर पूजा करनी चाहिए। फिर प्रणाम करनाचाहिए। फिर उनसे निवेदन करना चाहिए कि मेरा मन शुद्ध है, वचन शुद्ध है, काय शुद्ध हैं और अन्न, जल शुद्ध है | ये नवधा भक्ति है || ७४५ ॥ ( अब दाताके सात गुण बतलाते है - ) जिस दातामें श्रद्धा, सन्तोष, भक्ति, विज्ञान, अलोभीपना, क्षमा और शक्ति ये सात गुण पाये जाते हैं वह दाता प्रशंसा के योग्य होता हैं । ७४६ ॥ ( इन गुणों में से विज्ञानगुणका स्वरूप ग्रन्थकार स्वयं बतलाते हैं -) जो भोजन विरूप हों, चलितरस हो, फेंका हुआ हो, साधुकी प्रकृतिके विरुद्ध हो, जल गया हो, तथा जो खानेसे रोग पैदा करे, वह भोजन मुनिको नहीं देना चाहिए || ७४७ ।। जो उच्छिट हो - खानेसे बच गया हो, नीच लोगों के खाने योग्य हो, दूसरोंके लिए बनाया हो, निन्दनीय हो, दुर्जनसे छू गया हो या किसी देवता अथवा यक्ष के उद्देश्यसे रखा हो, वह भोजन मुनिको नहीं देना चाहिए ।। ७४८ ॥ जो दूसरे गाँवसे लाया गया हो, या मन्त्रके द्वारा लाया गया हो, या भेंटमे आया हो या बाजारसे खरीदा हो या ऋतुके प्रतिकुल हो, वह भोजन मुनिको नहीं देना चाहिए || ७४९ || दही, घी, दूध आदि बासी भी खाने के योग्य है, किन्तु जिसका रूप गन्ध और स्वाद बदल गया हो वह मुनिको देने के योग्य नहीं है ||७५० || अवस्थामें छोटे, रोगसे दुर्बल, बूढे और कोढ आदि व्याधियोंसे पीडित मुनियोंकी सदा सेवा करनी चाहिए, जिससे वे तप करने में समर्थ हो सके ।। ७५१ ।। भोजन के समय कपट, घमण्ड, निरादर, चंचलता, असंयम और कठोर वचनोंको विशेष रूपसे छोडना चाहिए अर्थात् वैसे तो इनको सदा ही छोडना चाहिए, किन्तु भोजन के समय तो खास तोरसे छोड देना चाहिए, क्योंकि इन सबका मनपर अच्छा असर नहीं पडता और मन खराब होनेसे भोजनका भी परिपाक ठीक नहीं होता ।। ७५२ ।। जो भक्तिपूर्वक दान नहीं देते, या अत्यन्त कृपण हैं अथवा अती है या दीनता और करुणा उत्पन्न करते हैं अर्थात् अपनी दीनता प्रकट करते हैं, या करुणा बुद्धिसे दान देते हैं, उसके घरपर साधुको आहार नहीं लेना चाहिये ।।७५३ ।। 'साधु बडे सत्त्वशाली होते हैं, चित्तसे भी बड़े दयालु होते हैं । उनकी वृत्ति दीनता और करुणाजन संकल्पोंसे रहित होती है । अतः वे दीनों और दयापात्रोंके घरपर आहार नहीं करते ||७५४।: ( जो लोग स्वयं दान न देकर दूसरोंसे दान दिलाते है उनके बारेमें ग्रन्थकार कहते है - ) जो काम दूसरोंसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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