SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 234
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ यशस्तिलचकम्पूगत - उपासकाध्ययन आत्मवित्तपरित्यागात्परैर्धर्म विधायने । निःसंदेहमवाप्नोति परभोगाय तत्फलम् ।। ७५६ भोज्यं भोजनशक्तिश्च रतिशक्तिर्वरस्त्रियः । विभवो दानशक्तिश्च स्वयं धर्मकृतेः फलम् ।। ७५७ शिल्पotosardarसंभलीपतितादिषु । देहस्थिति न कुर्वीत लिङ्गिलिङ्गोपजीविषु ।। ७५८ दीक्षायोग्यास्त्रयो वर्णाश्चत्वारश्च विधोचिताः । मनोवाक्कायधर्माय मताः सर्वेऽपि जन्तव ।।७५९ पुष्पादिरशनादिर्वा न स्वयं धर्म एष हि । क्षित्यादिरिव धान्यस्य किं तु भावस्य कारणम् ॥७६० युक्त हि श्रद्धया साधु सकृदेव मनो नृणाम् । परां शुद्धिमवाप्नोति लोहं विद्धं रसैरिव ।। ७६१ तपोदानाचंनाहीनं मनः सदपि देहिनाम् । तत्फलप्राप्तये न स्यात्कुशूलस्थितबीजवत् ।। ७६२ आवेशिका श्रितज्ञातिदीनात्मसु यथाक्रमम् । यथौचित्यं यथाकालं यज्ञपञ्चकमाचरेत् । । ७६३ काले कलौं चले चिसे देहे चाज्ञादिकीटके । एतच्चित्रं यदद्यापि जिनरूपधरा नराः ।। ७६४ यथा पूज्य जिनेन्द्राणां रूपं लेपादिनिमितम् । तथा पूर्वमुनिच्छाया पूज्याः संप्रति संयताः । ७६५ तदुत्तमं भवेत्पात्रं यत्र रत्नत्रयं नरे । देशव्रती भवेन्मध्यमन्यच्चासंयतः सुदृक् ॥ ७६६ कराने लायक है, या जो भाग्यवश हो जाता है उनको छोडकर धर्मके कार्य, स्वामीकी सेवा और सन्तानोत्पत्तिको कौन समझदार मनुष्य दूसरेके हाथ सौंपता है ? ॥७५५|| जो अपना धन देकर दूसरोंके द्वारा धर्मं कराता है वह उसका फल दूसरोंके भोगके लिए ही उपार्जित करता हैं इसमें सन्देह नहीं है ।।७५६॥ खाद्य पदार्थ, भोजन करनेकी शक्ति, रमण करने की शक्ति, सुन्दर स्त्रियाँ, सम्पत्ति और दान करनेकी शक्ति, ये चीजें स्वयं धर्म करनेसे ही प्राप्त होती हैं ।।७५७॥ नाई, धोबी, कुम्हार, लुहार, सुनार, गायक, भाट, दुराचारिणी स्त्री, नीच लोगोंके घरमें तथा जो मुनियों, के उपकरण बेचकर उनसे आजीविका करते है उनके घर में मुनिको आहारनहीं करनाचाहिए ॥ ७५८ ॥ ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य ये तीन वर्ण ही जिनदीक्षाके योग्य हैं किन्तु आहार दान देनेके योग्य चारों ही वर्ण हैं; क्योंकि सभी प्राणियोंको मानसिक, वाचनिक और कायिक धर्मका पालन करनेकी अनुमति हैं ।। ७५९ ।। पुष्प आदि और भोजन आदि स्वयं धर्म नहीं है, किन्तु जैसे पृथ्वी आदि धान्यकी उत्पत्ति में कारण हैं वैसे ही ये चीजें शुभ भावोंके होनेमें कारण हैं ।।७६०|| भावार्थपूजामें जो पुष्प आदि चढाये जाते है और मुनिको जो आहार दिया जाता हैं सो ये पुष्प आदि द्रव्य या भोजन स्वयं धर्म नहीं है । किन्तु इनके निमित्तसे जो शुभ भाव होते है वे धर्म के कारण है क्योंकि उनसे शुभ कर्मका बन्ध होता हैं। मनुष्योंका मन यदि एक बार भी सच्ची श्रद्धासे युक्त होतो वह उत्कृष्ट विशुद्धिको प्राप्त होता है। जैसे पारद के योग से लोहा अत्यन्त शुद्ध हो जाता हैं ।।७६१ ।। और प्राणियों के मन होते हुए भी यदि वह मन तप, दान और पूजामें रत न हो तो जैसे खेती में पडा. हुआ बीज धान्यको उत्पन्न नहीं कर सकता वैसे ही वह मन भी उत्कृष्ट विशुद्धिको प्राप्त नहीं कर सकता । अतः यदि मन हैं तो उसे शुभ कार्यो में लगाना चाहिए ||७६२ ।। अपने घरपर आये हुए अतिथिको, अपने आश्रितको सजातायको और दीन मनुष्योंको समयके अनुसार यथायोग्य पाँच दान क्रमशः देने चाहिए || ७६३ || यह बडा आश्चर्य हैं कि इस कलिकालमें जब मनुष्योंका मन चंचल रहता है और शरीर अन्नका कीडा बना रहता है, आज भी जिनरूपके धारक मनुष्य पाये जाते है ।। ६४ ।। जैसे पाषाण आदि में अंकित जिनेन्द्र भगवान्‌की प्रतिकृति पूजने योग्य हैं, लोग उसकी पूजा करते हैं, वैसे ही आजकल के मुनियोंको भी पूर्वकालके मुनियोंकी प्रतिकृति मानकर पूजना चाहिए || ७६५ ।। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रसे विभूषित मुनि उत्तम पात्र हैं । अणुव्रती श्रावक मध्यमपात्र है और असंयत सम्यग्दृष्टि जघन्यपात्र है || ७६६ । । जिस मनुष्य में Jain Education International २१७ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy