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________________ २१८ श्रावकाचार - संग्रह यत्र रत्नत्रयं नास्ति तदपात्रं विदुर्बुधाः । उप्तं तत्र वृथा सर्वमूषरायां क्षिताविव ॥ ७६७ पात्रे दत्तं भवेदन्नं पुण्याय गृहमेधिनाम् । शुक्तावेव हि मेघानां जलं मुक्ताफलं भवेत् ॥ ७६८ मिथ्यात्वग्रस्त चितेषु चारित्रामास भागिषु । वोषायैव भवेद्दानं पयःपानमिवाहिषु ॥ ७६९ कारुण्यादथवौचित्यात्तेषां किञ्चिद्दिशन्नपि । विशेदुद्धृतमेवानं गृहे भुक्ति न कारयेत् ।। ७७० सत्कारादिविधावेषां दर्शनं दूषितं भवेत् । यथा विशुद्धमप्यम्बु विषभाजन संगमात् । ७७१ शाक्यनास्तिकयागज्ञजटिलाजीवकाविभिः । सहावासं सहालापं तत्सेवां च विवर्जयेत् ।। ७७२ अज्ञाततत्त्वचेतोभिर्दुराग्रहमलीमसैः । युद्धमेव भवेद् गोष्ठ्यां दण्डादण्डि कचाकचि || ७७३ भयलोमोपरोधाद्यैः कुलिङ्गिषु निषेवणे । अवश्यं दर्शनं म्लायेशी चराचरणे सति ।। ७७४ बुद्धिपरुषयुक्तेषु देवायत्तविभूतिषु । नृषु कुत्सित सेवायां दैन्यमेवातिरिच्यते ।। ७७५ समयी साधकः साधुः सूरिः समयदीपकः । तत्पुनः पञ्चधा पात्रमामनन्ति मनीषिणः ।। ७७६ गृहस्थो वा यतिर्वापि जैनं समयमास्थितः । यथाकालमनुप्राप्तः पूजनीयः सुदृष्टिभिः । ७७७ ज्योतिर्मन्त्रनिमित्तज्ञः सुप्रज्ञः कार्यकर्मसु । मान्यः समयिभिः सम्यक्परोक्षार्थसमर्थधीः ।। ७७८ दीक्षायात्रा प्रतिष्ठाद्या: क्रियारुद्विरहे कुतः । तदर्थं परपृच्छायां कथं च समयोन्नतिः ।। ७७९ न सम्यग्दर्शन है, न सम्यग्ज्ञान हैं और न सम्यक् चारित्र हैं उसे विद्वज्जन अपात्र समझते है । जैसे ऊसर भूमि में कुछ भी बोना व्यर्थ होता हैं वैसे ही अपात्रको दान देना भी व्यर्थ है ।।७६७ ॥ पात्रको आहार दान देने से गृहस्थोंको पुण्य फल प्राप्त होता है; क्योंकि मेघका पानी सीप में ही जानेसे मोती बनता है, अन्यत्र नहीं ॥७६८ || जिनका चित्त मिथ्यात्व में फँसा हैं और जो मिथ्या चारित्रको पालते हैं, उनको दान देना बुराईका ही कारण होता हैं. जैसे सांपको दूध पिलाने से वह जहर ही उगलता है, ।।७६९ ।। ऐसे लोगोको दयाभावसे अथवा शक्तित समझकर यदि कुछ दिया भी जाये तो भोजनसे जो अवशिष्ट रहे वही देना चाहिए। किन्तु घरपर नहीं जिमाना चाहिए । ७७० ।। जैसे विषैले बरतन के सम्बन्धसे अशुद्ध जल भी दूषित हो जाता हैं वैसे ही इन मिथ्यादृष्टि साधुवेषि योंका आदर-सत्कार करनेसे श्रद्धान दूषित हो जाता है ।। ७७१ || अतः बौद्ध, नास्तिक, याज्ञिक, जटाधारी तपस्वी और आजीवक आदि सम्प्रदाय के साधुओंके साथ निवास, बातचीत और उनकी सेवा आदि नहीं करना चाहिए ||७७२ ॥ तत्त्वोंसे अनजान और दुराग्रही मनुष्योंके साथ बातचीत करनेसे लढाई ही होती है जिसमें डण्डा डण्डी और केशाकेशी तककी नौबत आ सकती हैं ।। ७७३ ॥ जो स्त्री-पुरुष किसी अनिष्टके भयसे या पुत्र आदि के लालचसे या दूसरोंके आग्रहसे कुलिङगी साधुओंकी सेवा करते हैं, उनका श्रद्धान नीच आचरण करनेसे अवश्य मलिन होता हैं ।। ७७४ ।। सभी मनुष्य बुद्धिशाली हैं और यथायोग्य पौरुष - उद्योग भी करते है किन्तु सम्पत्तिका मिलना तो भाग्य के अधीन हैं। फिर भी यदि मनुष्य बुरे मनुष्योंकी सेवा करता है तो यह तो दीनताका अतिरेक हैं ।।७७५।। अब अन्य प्रकार से पात्रके पाँच भेद और उनका स्वरूप बतलाते हैं - बुद्धिमान् पुरुष समयी, साधक, साधु, आचार्यं और धर्मके प्रभावकके भेदसे पात्रके पाँच भेद मानते हैं ।। ७७६॥ गृहस्थ हो या साधु, जो जैन धर्मका अनुयायी है उसे समयी या साधर्मी कहते है । ये साधर्मी पात्र यथाकाल प्राप्त होनेपर सम्यग्दृष्टि भाइयों को उनका आदर-सत्कार करना चाहिए। ७७७ ।। जिनकी बुद्धि परोक्ष अर्थको भली प्रकारसे जानने में समर्थ हैं उन ज्योतिषशास्त्र, मन्त्रशास्त्र और निमित्तशास्त्र के ज्ञाताओंका तथा कार्यक्रम अर्थात् प्रतिष्ठा आदिके ज्ञाताका साधर्मी भाइयोंको सम्मान करना चाहिए ॥ ७७८॥ यदि न हो तो जिनदीक्षा, तीर्थयात्रा और जिन विम्बप्रतिष्ठा आदि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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