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________________ २८६ श्रावकाचार-संग्रह सोल्यध्वंसी जन्यते निन्दनीयो रोद्रो भावो यः कषायोदयेन । धत्ते जन्तोरेष चारित्रमोहं विद्वेषी वाराध्यमानो निकृष्टः ॥ ४६ बहारम्मग्रन्थसन्दर्भद रोद्राकारस्तीवकोपाविजन्यैः। श्वभ्रावासे प्राप्यते जीवितव्यं किंवा दुःखं दीयते नाघचष्टेः ॥ ४७ नानाभेवा कूटमानाविभेदैर्मायाऽनिष्टाऽऽराध्यमाना जनानाम् । तैर्यग्योन्यं जीवितव्यं विधत्ते किंवा बत्ते वञ्चना न प्रयुक्ता ।। ४८ अल्पारम्भग्रन्थसन्दर्भवः सौम्याकारमन्वकोपादिजन्यः। सद्यो जीवो नीयते मानुषत्वं कि नो सौख्यं वीयते शान्तरूपैः।। ४९ सम्यग्दृष्टि: श्रावकीयं चरित्रं चित्रा कामा निर्जरा रागिवृत्तम् । आयुर्दैवं प्राणमाजो दवन्ते शान्ता भावाः किं न कुर्वन्ति सौख्यम् ।। ५० संवादित्वं प्राञ्जला योगवत्तिर्नाम्नो ज्ञेयं कारणं पूजितस्य । वक्रो योगोऽवादि संवादहान्या साधं हेतुनिन्दनीयस्य तस्य ॥५१ नीचर्गोत्रं स्वप्रशंसाऽन्यनिन्दे कुर्वाणोऽसत्सदगुणोद्भावनाशी। प्राप्नोत्यङ्गी प्रार्थनीयं महेष्टरुच्चैर्गोत्रं मक्षु तद्वपरीत्ये ।। ५२ दर्शनमोहकर्मका आस्रव होता हैं । जैसे कि आस्वादे गये मद्यसे शीघ्र ही घोर आकार वाली बेहोशी प्राप्त होती है ॥४५॥ कषायके उदयसे जो सुखका विध्वंसक निन्दनीय रौद्रभाव उत्पन्न होता है, वह जीवके चारित्रमोहकर्मका आस्रव कराता है । जैसे कि आराधना किया गया निकृष्ट पुरुष चित्तमें विद्वेष भाव उत्पन्न कराता है।॥४६॥ बहुत आरम्भ, परिग्रहके सन्दर्भसे उत्पन्न हुए तथा रौद्र आकारवाले तीव्र क्रोधादि कषायोंके द्वारा प्रकट हुए दुर्भावोंसे यह जीव नारकावासमें जीवनको प्राप्त करता हैं, अर्थात् उक्त प्रकारके भावोंसे नारकायुका आस्रव होता है । आचार्य कहते है कि पापरूप चेष्टाओंके द्वारा कौन-सा दुःख नहीं दिया जाता है ।।४७।। कूट नाप तौल आदि अनेक प्रकारोंसे आराधना की गई अनेक भेदवाली अनिष्ट मायाचारी जीवोंको तिर्यग्योनियों. में जीवन प्रदान करती है; अर्थात् मायाचारसे तिर्यगायुकर्मका आस्रव होता है । दूसरोंके साथ की गई वंचना क्या दुःख नहीं देती? अर्थात् दुःख देती ही है ।।४८॥ अल्प आरम्भ और अल्प परिग्रहके सम्बन्धसे उत्पन्न हुए, सौम्य आकष्र वाले मन्द क्रोधादि-जनित भावोंसे जीव शीघ्र ही मनुष्य भवको प्राप्त करता है, अर्थात् मनुष्यायुका आस्रव करता हैं । आचार्य कहते है कि शान्तरूप परिणामोंसे क्या सुख नहीं प्राप्त होता है? होता ही हैं ॥४९॥ सम्यग्दर्शन धारण करना, श्रावकका चारित्र पालना, नाना प्रकारकी अकामनिजरा करना, सराग चारित्र पालना इत्यादि कार्य प्राणियोंको दैवायु प्रदान करते है। सो ठीक ही हैशान्त परिणाम क्या सुख नहीं देते हैं? देते ही हैं? ॥५०॥ विसंवाद-रहित आचरण करना और मन वचन कायकी उज्ज्वल वृत्ति रखना शुभनामकर्मके आस्रवके कारण जानना चाहिए। विसंवाद करना और योगोंकी कुटिलता रखना निन्दनीय अशुभनामकर्मके आस्रवके कारण हैं ।।५१।।अपनी प्रशंसा करना,अन्यकी निन्दा करना, अपने असत् गुणोंको प्रकट करना और दूसरोंके सद् गुणोंको भी आच्छादित करना, इत्यादि कार्योंसे जीव नीचगोत्रकर्मका आस्रव करता हैं । इनसे विपरीत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org .
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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