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अमितगतिकृतः श्रावकाचारः
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शुभ: शुभस्य विज्ञेयस्तथान्योऽन्यस्य कर्मणः । कारणस्यानुरूपं हि कार्यं जगति जायते ॥ ३९ संसारकारणं कर्म सकषायेण गृह्यते । येनान्येनाऽकषायेण कषायस्तेन वय॑ते ।। ४० ।
ज्ञाताज्ञातामन्दमन्दाविभावैश्चित्रश्चित्रं जन्यते कर्मजालम् । नाचित्रत्वे कारणस्यह कार्य किञ्चिच्चित्रं दृश्यते जायमानम् ॥ ४१ तिरस्कारमात्सर्यपैशुन्यविघ्नप्रपतापलापादिदोषैरनेकः । विबोधावरोधस्तदीक्षावरोधो दुरन्तः कृताते गहणीयः ॥ ४२ वधाक्रन्ददैन्यप्रलापप्रपञ्चैनिकृष्टेन तापेन शोकेन सद्यः । परात्मोमयस्थेन कर्माङ्गिवगैरसातं सदा गृह्यते दुःखपाकम् ।। ४३ साधूपास्याप्राणिरक्षातितिक्षासर्वज्ञार्चादानशौचादियोगः । सातं कर्मोत्पद्यते शर्मपाकं शिष्टाभीष्ट: पोषितैः सज्जनैर्वा ।। ४४ मोक्तव्येनावर्णवादेन देवे धर्म सङ्घ वीतरागे श्रुते च । मद्येनेवास्वाद्यमानेन सद्यो घोराकारो जन्यते दृष्टिमोहः ।। ४५
तत्त्वका वर्णन करते है-मन, वचन, कायकी क्रियाको योग कहते हैं और उसे ही आस्रव कहा गया हैं। जिसके द्वारा कर्म आते हैं, उसे आस्रव कहते हैं, इस प्रकारकी निरुक्ति आस्रव शक्तिकी शब्दशास्त्रके वेत्ताओंने की है ।।३८।। मन, वचन,कायकी शुभ क्रिया रूप योग शुभ कर्मके आस्रवका कारण हैं और अशुभ योग अशुभ कर्मके आस्रवका कारण है । क्योंकि जगत्में कारणके अनुरूप ही कार्य होता हैं ॥३९॥ यतः सकषाय जीवके द्वारा संसारका कारणभूत कर्म ग्रहण किया जाता हैं और अकषाय जीवके द्वारा कर्म नहीं ग्रहण किया जाता है, अतः कषायको त्यागने योग्य कहा गया है ॥४०॥
ज्ञातभाव, अज्ञातभाव, तीव्रभाव, मन्दभाव और आदि शब्दसे अधिकरण और वीर्य आदि नाना प्रकारके भावोंसे अनेक प्रकारका कर्मजाल उत्पन्न होता हैं, अर्थात् भावोंकी हीनाधिकता आदि कारणोंसे कर्मके आस्रवमें विभिन्नता पाई जाती हैं । क्योंकि लोकमें कारणकी विचित्रताके अभावमें कार्यकी विचित्रता उत्पन्न होती हुई नहीं देखी जाती हैं ।।४१॥ ज्ञान और दर्शनका, तथा इनके धारण करनेवाले जीवोंका तिरस्कार करना, उनसे मत्सरभाव रखना, चुगली खाना, विघ्न करना, विघात करना और उन्हें झूठे दोष लगाना, इत्यादि अनेक प्रकारके दोषयुक्त दुरन्त कार्योंसे ज्ञानावरण और दर्शनावरण कर्मका निन्दनीय आस्रव होता है ॥४२॥ प्राणियोंका वध करना, आक्रन्दन करना, दीनपना प्रकट करना, बकवाद करना, सन्ताप करना, शोक करना इत्यादि निष्कृष्ट कार्य चाहे स्वयं करे, चाहे अन्यमें उत्पन्न लरावे और चाहे स्व और पर दोनोंमें ही पैदा करे, इनसे प्राणिवर्ग दुःख देनेवाले असातावेदनीय कर्मको ग्रहण करता हैं।।४३।। साधुओंकी उपासना करना, प्राणियोंकी रक्षा करना, क्षमाभाव रखना, सर्वज्ञदेवका पूजन करना, दान देना, निर्लोभ परिणाम रखना आदि पुण्यरूप कार्योंसे सुख देनेवाले सातावेदनीय कर्मका आस्रव होता है। जैसे कि पालन-पोषण किये गये शिष्ट, इष्ट और सज्जनोंसे सुख प्राप्त होता है।।४४॥ वीतराग, देव, धर्म, संघ और शास्त्रके विषयमें किये निन्द्य त्याज्य अवर्णवादसे घोर भयंकर
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