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________________ २८४ श्रावकाचार-संग्रह मिथ्यादक सासादनो मिश्रदृष्टिः सम्यग्दृष्टिः संयतासंयताख्यः । ज्ञेयावन्यौ दो प्रमत्ताप्रमत्ती सत्ता पूर्वेणानिवृत्यल्पलोभो ।। २७ शान्तक्षीणो योग्ययोगी जिनेन्द्रो द्विः सप्तवं ते गुणस्थानमेवाः । त्रैलोक्यापारूढिसोपानमास्तिथ्यं येषु ज्ञायते जीवतत्त्वम् ।। २८ धर्माधर्मनमःकालपुद्गलाः परिकीर्तिताः । अजीवाः पञ्च सूत्रज्ञरुपयोगविजिताः ॥२९ अमूर्ता निष्क्रिया नित्याश्चत्वारो गदिता जिनः । रूपगन्धरसस्पर्शशब्दवन्तोऽत्र पुद्गलाः ।। ३० लोकालोको स्थितं व्याप्य व्योमानन्तप्रदेशकम् । लोकाकाशं स्थिती व्याप्य धर्माधमौं समन्ततः३१ धमाधमकजीवानामसंख्येयाः प्रदेशकः । अनन्तानन्तमानास्ते पुद्गलानामुदाहृताः ।। ३२ जीवानां पुद्गलानां च गतिस्थितिविधायिनी । धर्माधर्मो मतो प्राराकाशमवकाशकृत् ॥ ३३ असंख्यभुवनाकाशे कालस्य परमाणवः । एकैका वर्तना कार्या मुक्ता इव व्यवस्थिताः ।। ३४ जीवितं मरणं सोल्यं दुःखं कुर्वन्ति पुद्गलाः । अणुस्कन्धविकल्पेन विकल्पद्वयमागिनः ।। ३५ विश्वम्भराजलच्छायाचक्षुरिन्द्रियगोचराः । कर्माणि परमाणुश्च षड्विधः पुद्गलो मतः ।। ३६ स्थूलस्पूनमय स्थूलं स्थूलसूक्ष्मं जिनेश्वरैः । सूक्ष्मस्थूलं मतं सूक्ष्मं सूक्ष्मसूक्ष्मं यथाक्रमम् ।। ३७ यद्वाक्कायमनःकर्म योगोऽसावात्रवः स्मृतः । कर्माननत्यनेनेति शब्दशास्त्रविकशारदः ।। ३८ चाहिये ॥२५-२६।। त्रैलोक्यके अग्र भागपर चढनेके लिए सोपान मार्गके समान चौदह गुणस्थान कहे गये हैं-१. मिथ्यादृष्टि, २. सासादन, ३. मिश्रदृष्टि, ४. असंयतसम्यग्दृष्टि, ५. संयनासंयत, ६. प्रमत्तसंयत, ७. अप्रमत्तसंयत, ८. अपूर्वकरण ९. अनिवृत्तिकरण, १०. सूक्ष्मलोभ, ११. उपशान्तमोह, १२. क्षीणमोह, १३. सयोगिजिनेन्द्र और १४. अयोगिजिनेन्द्र । इन चौदह गुणस्थानोंमें जीवतत्त्वका वास्तविक तथ्य जाना जाता हैं ।।२७-२८।। अब अजीवतत्त्वका वर्णन करते हैं । जैन सूत्रज्ञ पुरुषोंने चैतन्य उपयोगसे रहित अजीवद्रव्य पाँच प्रकारके कहे है-धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, आकाशद्रव्य, कालद्रव्य और पुद्गलद्रव्य ।।२९॥ इनमेंसे प्रारम्भके चार द्रव्य जिनेन्द्रदेवने अमूर्त, निष्क्रिय और नित्य कहे है। पुद्गलद्रव्य रूप, रस, गन्ध, स्पर्श और शब्दवाला कहा है ॥३०॥ आकाशके अनन्त प्रदेश है और वे लोक-अकोकको व्याप्त करके सर्वत्र स्थित है। धर्म और अधर्मद्रव्य समानरूपसे सारे लोकाकाशको व्याप्त करके स्थित हैं ॥३१॥धर्म, अधर्म और एक जीवके असंख्यात-असंख्यात प्रदेश हैं । और पुद्गलोंके प्रदेश अनन्तानन्त प्रमाण कहे गये हैं।॥३२॥ ज्ञानियोंने धर्म और अधर्मद्रव्यको क्रमसे जीव और पुद्गलोंकी गति और स्थितिके करानेवाला कहा है, अर्थात् धर्मद्रव्य जीव-पुद्गलोंकी गतिमें और अधर्मद्रव्य स्थितिमें सहायक होता हैं । आकाशद्रव्य सर्वद्रव्योंको अवकाश देता हैं ।।३३।। लोकाकाशमें कालके परमाणु असंख्यात है । वर्तना इनका कार्य है और ये मुक्ताफलके समान लोकाकाशके एक-एक प्रदेश पर भिन्न-भिन्न रूपसे अवस्थित है ।।३४॥ पुद्गल जीवोंको जीवन, मरण और सुख-दुःख करते है । अणु और स्कन्धके भेदसे पुद्गलद्रव्यके दो भेद कहे गये हैं ॥३५।। जिनेश्वर देवने पुद्गल को छह प्रकारका कहा है-१. स्थूल-स्थूल, जैसे पृथ्वी। २. स्थूल, जैसे जल। ३. स्थूलसूक्ष्म, जैसे छाया ४. सूक्ष्मस्थूल, जैसे नेत्र विना शेष चार इन्द्रियोंके विषय रस, गन्ध आदि । ५. सूक्ष्म, जैसे कर्म-वर्गणा । और ६. सूक्ष्मसूक्ष्म, जैसे परमाणु ॥३६-३७ । अब आस्रव. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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