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________________ अमितगतिकृतः श्रावकाचारः २८३ एकद्वित्रिचतुःपञ्चहषीकाणां विभाजिताः । अन्येषां त्रिचतुःपञ्चषट् सप्ताङ्गायुरिन्द्रियैः ।। १९ जरायुजाण्डजाः पोता गर्भजा देवनारकाः । उपपादभवा शेषाः सम्मूर्च्छनभवा मताः ॥ २० श्वाभ्रसम्मन्छिनो जीवा भूरिपापा नपुंसकाः । स्त्रीपुंवेदा मता देवा सवेदत्रितया: परे ॥२१ सचित्तः संवृत्त: शीतः सेतरो वा विमिश्रकः । विभेदैरान्तभिन्ना नवधा योनिरङ्गिनाम् ।। २२ भूरूहेषु दश ज्ञेयाः सप्त नित्यान्यधातुषु । नारकामरतियंक्षु चत्वारो विकलेषु षट् ।। २३ चतुर्दश मनुष्येषु योनयः सन्ति पिण्डिताः । सर्वे शतसहस्राणामशीतिश्चतुरुत्तराः ।। २४ गतीन्द्रियपूर्योगज्ञानवेदऋधादयः। संयमाहारमध्येक्षालेश्यासम्यक्त्वसंज्ञिनः ।। २५ माय॑न्ते सर्वदा जीवा यासु मार्गणकोविदः । सम्यक्त्वशुद्धये मार्यास्ताश्चतुर्दश मार्गणाः ।। २६ प्राण होता हैं और संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक जीवोंके मन प्राण होता है ॥१८॥ एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय जीवोंके उत्तरोत्तर विभाजित अधिक-अधिक प्राण होते है। अर्थात् एकेन्द्रिय जीवके स्पर्शनेन्द्रिय, शरीर, आयु और श्वासोच्छ्वास ये चार प्राण होते हैं। द्वीन्द्रिय जीवके रसनेन्द्रिय और वचन-सहित छह प्राण, श्रीन्द्रिय जीवके घ्राणेन्द्रिय-सहित सात प्राण, चतुरिन्द्रिय जीवके चक्षुरिन्द्रिय-सहित आठ प्राण, असंज्ञी पंचेन्द्रियके श्रोत्रेन्द्रिय-सहित नौ प्राण और संज्ञी पंचेन्द्रियके मन-सहित दश प्राण होते है। पर्याप्तकोंसे भिन्न जो अपर्याप्त जीव हैं, उनमें एकेन्द्रियके स्पर्शनेन्द्रिय, शरीर और आयु ये तीन प्राण होते है । द्वीन्द्रियके रसना-सहित चार प्राण होते है । त्रीन्द्रियके घ्राण-सहित पाँच प्राण. चतुरिन्द्रिय के चक्षु-सहित छह प्राण और पंचेन्द्रियके श्रोत्र-सहित सात प्राण होते हैं, ऐसा जानना चाहिये ।।१९।। ___ माताके गर्भसे उत्पन्न होनेवाले जीव तीन प्रकार के होते है-जरायुज, अण्डज और पोत । देव और नारकी उपपाद जन्म वाले हैं और शेष सर्व जीव सम्मूर्च्छन जन्मवाले माने गये हैं ।२०।। अत्यन्त पापी, नारकी और सम्मूर्च्छन जीव नपुंसकवेदी हैं। देव, स्त्री और पुरुषवेदी होते हैं । इनके सिवाय शष सर्व जीव तीनों वेदवाले माने गये है ।।२१॥ सचित, संवृत, शीत इनसे विपरीत अचित्त, विवृत और उष्ण तथा मिश्रित अर्थात् सचित्ताचित्त, संवृत विवत और शीतोष्ण इस प्रकार अन्तर भेदोंसे भेदको प्राप्त नौ प्रकारकी योनियाँ देह-धारियोंके होती हैं ॥२२॥ इन योनियोंके उत्तर भेद ८४ लाख है। उनमेंसे वृक्षोंको दस लाख योनियाँ जानना चाहिये। नित्यनिगोद, इतरनिगोद और पृथ्वीकायिक आदि चार धातुवाले एकेन्द्रिय जीवोंके ७-७ लाख योनियाँ होती हैं । नारकी,देव और पंचेन्द्रिय तिर्यंचोंकी ४-४ लाख योनियाँ होती हैं । विकलत्रयजीवोंकी ६ लाख योनियाँ हैं और मनुष्योंमें १४ लाख योनियाँ होती हैं। इस प्रकार सभी मिलकर (१० + (५४६%) ४२ + ४ + ४ + ४ + ६ + १४%८४) चौरासी लाख योनियाँ होती है। ये सभी सचित्तादि योनियोंके ही उत्तरभेदरूप जानना चाहिये ।। २३-२४।। जीवोंके अन्वेषणमें चतुर पुरुषोंके द्वारा जिन आधारों पर जीव सदा अन्वेषण किये जाते है, उन्हें मार्गणा कहते है। वे मार्गणाएँ चौदह होती है-१. गति, २. इन्द्रिय, ३. काय. ४. योग, ५. वेद, ६. कषाय, ७. ज्ञान, ८. संयम, ९. दर्शन, १०. लेश्या, ११. भव्यत्व, १२. सम्यक्त्व, १३. संज्ञित्व और १४. आहार. मार्गणा । अपने सम्यक्त्वकी शुद्धिके लिए ज्ञानियोंको सदा इनके द्वारा जीवोंका अन्वेषण करना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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