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________________ अमितगतिकृतः श्रावकाचारः २८७ दानं लामो वीर्यभोगोपमोगा नो लभ्यन्ते देहिना विघ्नभाजा। विज्ञायेत्थं विघ्नमीतेन विघ्नो नो कर्तव्यः पण्डितेन त्रिधाऽपि ।। ५३ ये गृह्यन्ते पुद्गला: कर्मयोग्याः क्रोधाचाढचश्चेतनरेष वन्धः । मिथ्या दृष्टिनिर्वतत्वं कषायो योगो ज्ञेयस्तस्य बन्धस्य हेतुः ।। ५४ बन्धः स मतः प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेशभेदेन । पदभिश्चतुष्प्रकारो येन भवें भ्रम्यते जीवः ॥ ५५ स्वभाव: प्रकृतिः प्रोक्ता स्थितिः कालावधारणम् । अनुभागो विभागस्तु प्रदेशोऽशप्रकल्पनम् ।। ५६ करोति योगात्प्रकृतिप्रदेशो कषायतः स्थित्यनुभागसज्ञो। स्थिति न बन्धः कुरुते कषाये क्षीणे प्रशान्ते स ततोऽस्ति हेयः ।। ५७ स्वीकरोति सकषायमानसो मुञ्चते च विकषायमानसः । कर्म जन्तुरिति सूचितो विधिर्बन्धमोक्षविषयो विबन्धकैः ।। ५८ आस्रवस्य निरोधो यः संवरः स निगद्यते । भावद्रव्यविकल्पेन द्विविधः कृतसंवरैः ॥ ५९ कार्योंके करने पर महापुरुषोंके द्वारा प्रार्थनीय उच्चगोत्रको जीव शीघ्र ही प्राप्त करता है।॥५२॥ दुसरोंके दान, लाभ, वीर्य, भोग और उपभोगमें विघ्न करनेवाले जीव दान, लाभ, वीर्य, भोग और उपभोगको नहीं पाते है, ऐसा जानकर विघ्नसे भयभीत पंडितजनोंको मन, वचन और कायसे किसीके भी लाभ, भोग-उपभोगादिमें विघ्न नहीं करना चाहिये ॥५३।। अब बन्धतत्त्वका वर्णन करते हैं-क्रोधादि कषायोंसे मुक्त जीवोंके द्वारा जो कर्मयोग्य पुद्गल ग्रहण किये जाते हैं, वह बन्ध कहलाता हैं । उस बन्धके कारण मिथ्यादर्शन, अविरति,कषाय और योग जानना चाहिये ॥५४॥ प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशके भेदसे वह बन्ध प्रवीण पुरुषोंने चार प्रकारका कहा हैं । इस बन्धके द्वारा ही जीव संसारमें परिभ्रमण करता हैं ।।५५॥ ज्ञानावरणादि कर्मोंके ज्ञानादिके आवरण करनेके स्वभावको प्रकृतिबन्ध कहते हैं। बंधे हुए कर्म जितने समय तक आत्मासे संलग्न रहेंगे, उतने कालकी मर्यादाको स्थितिबन्ध कहते हैं। कर्मोके फल देनेके विपाकको अनुभागबन्ध कहते है और आये हुए कर्मपरमाणुओंमें ज्ञानावरणादिरूपसे उनके विभाग होनेको प्रदेशबन्ध कहते है ॥५६॥ योगसे प्रकृति और प्रदेशबन्ध होता हैं, तथा कषायसे स्थिति और अनुभागबन्ध होता है। जब कषाय उपशान्त या क्षीण हो जाते है, तब कर्मोका स्थितिबन्ध नहीं होता हैं, अतएव कषाय छोडने योग्य है ।।५७।। कषाययुक्त चित्तवाला मनुष्य कर्मोको ग्रहण करता है और कषाय-रहित चित्तवाला मनुष्य कर्मोको छोडता है। इस प्रकार कर्मों के बन्ध और मोक्ष विषयक विधि कर्म-बन्धनसे रहित वीतराग सर्वज्ञदेवने सूचितकी हैं ।।५८॥ अब संवर तत्त्वका वर्णन करते हैं-कर्मोके आस्रवका निरोध करनेवाले मुनीश्वरोंके कर्मों. के आनेके निरोधको संवर कहा है । वह संवर दी प्रकारका है-द्रव्यसंवर और भावसंवर ।।५९।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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