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________________ २८८ श्रावकाचार-संग्रह क्रोध लोभ भयमोहरोधनं भावसंवरमुशन्ति देहिनाम् । भाविकल्मषविशेषरोधनं द्रव्यसंवरमवास्तकल्मषम् ।। ६० 1 धार्मिकः शमितो गुप्तो विनिर्जितपरीषहः । अनुप्रेक्षापरः कर्म संवृणोमि ससंयमः ॥ ६१ मिथ्यात्वाव्रतको पादियोगः कर्म यदयंते । तन्निरस्यति सम्यक्त्वव्रत विग्रहरोधनैः ।। ६२ पूर्वोपार्जितकर्मेक देश संक्षयलक्षणा । सविपाकाऽविपाका च द्विविधा निर्जराकथि || ६३ यथा फलानि पच्यन्ते कालेनोपक्रमेण च । कर्माण्यपि तथा जन्तोरुपात्तानि विसंशयम् ।। ६४ अनेहसा या दुरितस्य निर्जरा साधारणा साऽपरकर्मकारिणी । विधीयते या तपसा महीयसा विशोषणी साऽपरकर्म त्रारिणी ।। ६५ वितप्यमानस्तपसा शरीरी पुराकृतानामुपयाति शुद्धिम् । न मायमानः कनकोपल: कि सप्ताचिषा शुद्धयति कश्मलेभ्यः ।। ६६ घातिकर्म विनिहत्य केवलं स्वीकरोति भुवनावभासक्रम् । चेतनः सकललोकसन्ततं ध्वान्तराशिमिव मास्करो दिवम् ।। ६७ निमूmकाषं स निकृत्य कल्मषं प्रयाति सिद्धि कृतकर्मनिर्जरः । विनिर्मलध्यानसमृद्ध पावके निवेश्य वग्धाऽखिलबन्धकारणम् ॥ ६८ पापोंके नाश करनेवाले आचार्योंने क्रोध, लोभ, भय और मोक्षके निरोधको जीवोंका भावसंवर कहा है । तथा आनेवाले कर्मोंके प्रवेश रोकनेको द्रव्यसंवर कहा है ।। ६० ।। दश धर्मो का पालक, पाँच समितियों में सावधान, तीन गुप्तियोंसे सुरक्षित, बाईस परीषहोंका विजेता, बाहर अनुप्रेक्षाओंका चिन्तक और पाँचों संयमोंका धारक पुरुष आनेवाले कर्मोंका संवर करता है ॥ ६१ ॥ यह जीव मिथ्यात्व, अव्रत, क्रोधादि कषाय और योगके द्वारा जो कर्म उपार्जित करता है, उसे सम्यक्त्व, व्रत, कषाय, निग्रह और योग-निरोधके द्वारा दूर करता है || ६२ ॥ अब निर्जरातत्त्व का वर्णन करते है - पूर्वोपार्जित कर्मोंके एकदेश क्षय होनेको निर्जरा कहते है । सविपाक और अविपाकके भेदसे वह निर्जरा दो प्रकारकी कही गई हैं ||६३|| जिस प्रकार वृक्षोंके फल अपने कालसे, तथा पाल आदि उपक्रमसे पकते है, उसी प्रकारसे जीवोंके उपार्जित कर्म भी यथाकाल और उपक्रम द्वारा निःसंशय पकते हैं अर्थात् निर्जीर्ण होते है ।। ६४ ।। जो अपना समय पाकर कर्मकी निर्जरा होती हैं, वह साधारण है, अर्थात् सभी संसारी जीवोंके होती है और वह नवीन कर्मका बन्ध कराती हैं । किन्तु जो महान् तपके द्वारा कर्म- निर्जरा की जाती है. वह पूर्व संचित कर्मों को सुखाती हैं और नवीन आनेवाले कर्मो को रोकती है || ६५ ॥ तपके द्वारा भलीभाँति तपा हुआ मनुष्य पूर्वोपार्जित कर्मो का क्षय कर शुद्धिको प्राप्त होता है। अग्निके द्वारा संदग्ध सुवर्णपाषाण क्या कीट- कालिमा शुद्ध नहीं होता है ? होता ही है || ६६ ॥ | यह चेतन आत्मा. घातिया कर्मोंको तपके द्वारा विनष्ट करके सर्वलोक-प्रकाशक एवं सर्वजगन्मान्य केवलज्ञानको प्राप्त करता है । जैसे सूर्य अन्धकारके समूहका नाश कर प्रकाशमान दिनको प्राप्त करता हैं || ६७ ॥ अतिनिर्मल शुक्लध्यानरूप समृद्ध पावकमें प्रवेश कराके समस्त कर्मबन्ध के कारणोंको जलाकर और संचित कर्मोकी निर्जरा करता हुआ यह आत्मा सर्वकर्मो के कल्मषको निर्मूल क्षय करके सिद्धिको प्राप्त करता हैं ॥ ६८ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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