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________________ अमितगतिकृतः श्रावकाचारः २८९ निसर्गतो गच्छति लोकमस्तकं कर्मक्षयानन्तरमेव चेतनः । धर्मास्तिकायेन समीरितोऽनघं समीरणेनेव रजश्चयः क्षणात् ॥ ६९ निरस्तदेहो गुरुदुःखपीडितां विलोकमानो निखिलां जगत्त्रयीम् । स भाविनं तिष्ठति कालमुज्ज्वलो निराकुलानन्तसुखान्धिमध्यगः ।। ७० यवस्ति सौख्यं भवनत्रये परं सुरेन्द्रनागेन्द्र नरेन्द्र भोगिनाम् । अनन्तमागोऽपि न तन्निगद्यते निरेनसः सिद्धसुखस्य सूरिभिः ।। ७१ इमे पदार्थाः कथिता महषिभिर्ययायथं सप्त निवेशिता हदि । विनिर्मला तत्त्वरुचि वितन्वते जिनोपदेशा इव पापहारिणः ।। ७२ विरागिणा सर्वपदार्थवेदिना जिनेशिनते कथिता न वेति यः। करोति शङ्कां न कदापि मानसे निःशङ्कितोऽसौ गदितो महात्मना ।। ७३ विधीयमानाः शमशीलसंयमा: श्रियं ममेमे वितरन्तु चिन्तिताम् । सांसारिकानेकसुखप्रद्धिनीं निष्कांक्षितो नेति करोति काङ्क्षाम् ।। ७४ तपस्विनां यस्तनमस्तसंस्कृति जिनेन्द्रधर्म सुतरां सुदुष्करम् । निरीक्षमाणो न तनोति निन्दनं स मण्यते धन्यतमोऽचिकित्सन् ।। ७५ देवधर्मसमयेषु मूढता यस्य नास्ति हृदये कदाचन ।। चित्तदोषकलितेषु सन्मतेः सोऽर्च्यते स्फुटममूढदृष्टिकः ।। ७६ अब मोक्षतत्त्वका वर्णन करते है-उपर्युक्त प्रकारसे यह जीव नवीन कर्मबन्धके कारणोंका अभाव कर, तथा संचित कर्मोंकी निर्जरा कर सर्व कर्मोंके क्षयके अनन्तर ही धर्मास्तिकायसे प्रेरित होता हआ स्वभावसे ही निर्दोष लोकशिखरको प्राप्त हो जाता हैं। जैसे कि पवनके द्वारा उडाया गया रजका पुञ्ज क्षणमात्रमें ऊपर चला जाता है ॥६९।। इस प्रकार कर्मरूप देहसे रहित अतएव उज्ज्वलताको प्राप्त हुआ यह आत्मा अतिदु खसे पीडित इस समस्त जगत्त्रयको अव. लोकन करता हुआ आगे अनन्तकाल तक निराकुल अनन्त सुख-सागरके मध्यमें निमग्न रहता है।७० । तीनों लोकोंमें देवेन्द्र, नागेन्द्र, नरेन्द्र और सौभाग्यशालियोंको जो उत्कृष्ट सौख्य प्राप्त है, वह कर्म-रहित मोक्ष-सुखके अनन्तवें भाग भी नहीं है, ऐसा आचार्योने कहा हैं ॥७१।। महषियोंने ये जो सात तत्त्व या पदार्थ कहे हैं उन्हें जो यथार्थ रीतिसे अपने हृदयमें जिनोपदेशके समान धारण करते हैं, वे जीव पापोंको अपहरण करनेवाली अतिनिर्मल तत्त्वकी प्रतीतिको धारण करते हैं ॥७२।। अब सम्यक्त्वके निःशंकित आदि आठ अंगोंका वर्णन करते हैं-वीतरागी सर्वपदार्थोके वेत्ता जिनेन्द्र देवने ये सर्व पदार्थ कहे है, अथवा नहीं? इस प्रकारकी शकाको जो कभी भी मन में नहीं करता है, महापुरुषोंने उसे पहला निःशंकित अंग कहा है ।।७३ । मेरे द्वारा किये जानेवाले ये शम, शील और संयम मुझे सांसारिक अनेक प्रकारके सुखोंको बढानेवाली मनोवांछित लक्ष्मीको देवें, ऐसी आकांक्षा निःकांक्षित गुणका धारक कभी नहीं करता है। यह दूसरा वि:काक्षित अंग है ।।७४।। जो तपस्वियोंके संस्कार-रहित मलिन शरीरको और सुतरां अतिदुष्कर जिनेन्द्र धर्मको निरीक्षण करता हुआ भी उनकी निन्दा नहीं करता हैं, वह तीसरे निविचिकित्सा अंगका धारक उत्तम अन्य पुरुष कहा गया है ।।७५॥ जिस सुबुद्धिके हृदयमें नाना प्रकारके दोषोंसे युक्त कुदेव,कुधर्म और कुमत पर कभी भी मूढता नहीं हैं, वह निश्चयसे चौथे अमूढदृष्टि अंगका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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