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________________ अमितगतिकृतः श्रावकाचारः ४१३ ॐ ज्रौं झौं श्री ही धृति कोत्ति बुद्धि लक्ष्मी स्वाहा, इति पदैर्वलयं पूरयेत् । एवं पञ्चनमस्कारेण पञ्चाङ्गुलिन्यस्तेन सकलीक्रियते ॐ णमो अरहंताणं हं स्वाहा अगुष्ठे । ॐ णमो सिद्धाणं हीं स्वाहा तर्जन्याम् । ॐ णमो आयरियाणं हं स्वाहा मध्यमायाम् । ॐ णमो उवज्झायाणं हौं स्वाहा अनामिकायाम् । ॐ णमो लोए सव्वसाहूणं हः स्वाहा कनिष्ठिकायाम् । एवं वारत्रयमङ्गुलीषु विनस्य मस्तकस्योपरि पूर्वदक्षिणापरोत्तरेषु विन्यस्य जपं कुर्यात् । अभिधेया नमस्कारपदैर्ये परमेष्ठिनः । पदस्थास्ते विधीयन्ते शब्देऽर्थस्य व्यवस्थितेः ।। ४९ अनन्तदर्शनज्ञानसुखवीयरलङ्कृतम् । प्रतिहार्याष्टकोपेतं नरामरनमल्कृतम् ।। ५० शुद्धस्फटिकसंकाशशरीरमुरुतेजसम् । घातिकर्मक्षयोत्पन्ननवकेवललब्धिकम् ।। ५१ विचित्रातिशयाधारं लब्धकल्याणपञ्चकम् । स्थिरधीः साधुरर्हन्तं ध्यायत्येकाग्रमानसः ।। ५२ पिण्डस्थो ध्यायते यत्र जिनेंद्रो हतकल्मषः । तत्पिण्डपञ्चकध्वन्सि पिण्डस्थं ध्यानमिष्यते ।। ५३ प्रतिमायां समारोप्य स्वल्पं परमेष्ठिनः । ध्यायतः शुद्धचित्तस्य रूपस्थं ध्यानमिष्यते ।। ५४ सिद्धरूपं विमोक्षाय निरस्ताशेषकल्मषम् । जिनरूपमिव ध्येयं स्फटिकप्रतिबिम्बितम् ।। ५५ अरूपं ध्यायति ध्यानं परं संवेदनात्मकम् । सिद्धरूपस्य लाभाय नीरूपस्य निरेनसः ।। ५६ बहिरन्तः परश्चेति त्रेधाऽऽत्मा परिकीर्तितः । प्रथम द्वितयं हित्वा परात्मानं विचिन्तयेत् । ५७ बहिरात्माऽऽत्मविभ्रान्तिः शरीरे मुग्धचेतसः । या चेतस्यात्मविभ्रान्तिः सोऽन्तरात्याऽभिधीयते ।।५८ श्यामो गौरः कृशः स्थूल: काणः कुण्ठोऽबलो बली। वनिता पुरुष षण्ढो विरूपो रूपवानहम् ।। ५९ नमस्कार वाले पदोंके द्वारा जो परमेष्ठी कहे जाते हैं, वे पदस्थ कहलाते हैं, क्योंकि शब्दमें अर्थ की व्यवस्था मानी गई हैं ।। ४९ ।। इस प्रकार पदस्थ ध्यानका वर्णन किया। अब पिण्डस्थ ध्यानका वर्णन करते हैं-एकाग्र चित्तवाला स्थिरबुद्धि साधु अनन्त दर्शन ज्ञान सुख वीर्यसे अलंकृत, आठ प्रातिहार्यों से संयुक्त, मनुष्य और देवोंसे पूजित, शुद्ध स्फटिक मणिके सदृश निर्मलशरीर और महान तेजके धारक, घातिया कर्मोके क्षय से उत्पन्न हुई नौ केवललब्धिके स्वामी, नाना प्रकारके अतिशयों के आधार और पांच कल्याणकोंके प्राप्त होने वाले ऐसे अरहन्त परमेष्ठी को पिण्डस्थ ध्यानमें ध्याता है ।। ५०-५२ ।। जिस परमौदारिक शरोररूप पिण्ड में स्थित पापोंके विनाशक जिनेन्द्रदेव ध्याये जाते हैं, वह औदारिकादि पांच शरीर रूप पिण्डका नाशक पिण्डस्थ ध्यान कहा जाता हैं ।। ५३ ।। अब रूपस्थ ध्यानका स्वरूप कहते हैं-परमेष्ठीके स्वरूपको प्रतिमामें आरोपण करके ध्यान करनेवाले शुद्धचित्त पुरुषके ध्यानको रूपस्थ ध्यान कहते हैं ।। ५४ ॥ अब अरूपस्थ या रूपातीत ध्यानका स्वरूप कहते हैं-समस्त कर्मोसे रहित सिद्धभगवान्के स्वरूपका स्फटिक में प्रतिबिम्बित जिनराजके रूपके समान रूप रस गन्ध स्पर्श से रहित, केवलज्ञानात्मक ध्यान करना अरूपस्थ ध्यान है । यह रूपातीत और सर्व कर्मरहित निर्मल सिद्ध स्वरूपकी प्राप्तिके लिए ध्याया जाता है ।। ५५-५६ ॥ अब आत्माके तीन भेदों का वर्णन करते हैं-बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा-इस प्रकार आत्मा तीन प्रकार का कहा गया है । इनमेंसे प्रथम और द्वितीय भेदको छोडकर परमात्माका चिन्तवन करना चाहिए । जिस मूढ बुद्धि पुरुषको शरीरमें आत्माकी भ्रान्ति है, वह बहिरात्मा है । चित्तमें जिसे आत्माकी भ्रान्ति है, वह अन्तरात्मा कहा जाता है ॥ ५७-५८ ।। भावार्थ-अन्य आचार्योंने केवल बहिरात्मा को त्याज्य कहा है और यहां पर अन्तरा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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