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अमितगतिकृतः श्रावकाचारः
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ये जिनेन्द्रवचनानुसारिणो घोरजन्मवनपातमीरवः । तैश्चतुष्टयमिदं विनिन्दितं जीवितावधि विमुच्यते त्रिधा ।। ३७ मद्यमांसनवनीतसारघं यश्चतुष्कभिदमद्यते सदा। गृद्धिरागवधसङ्गबृंहणं तेश्चतुर्गतिमवो विगाह्यते ॥ ३८ यः सुरादिषु निसेवतेऽधमो नित्यमेकमपि लोलमानसः । सोऽपि जन्मजलधावटाटयते कथ्यते किमिह सर्वमक्षिणः ।। ३९ यत्र राक्षसपिशाचसञ्चरो यत्र जन्तुनिवहो न दश्यते । यत्र मुक्तमपि वस्तु भक्ष्यते यत्र घोरतिमिरं विजृम्भते ॥४. यत्र नास्ति यतिवर्गसङ्गमो यत्र नास्ति गुरुदेवपूजनम् । यत्र संयमविनाशिभोजनं यत्र संसजति जीवभक्षणम् ॥ ४१ यत्र सर्वशुभकर्मवर्जनं यत्र नास्ति नमनागमक्रिया। तत्र दोषनिलये दिनात्यये धर्मकर्मकुशला न भञ्जते ।। ४२ भुञ्जते निशि दुराशया यके गद्धिदोषवशतिनो जनाः। भूतराक्षसपिशाचशाकिनीसङ्गतिः क्रथममीभिरस्यते ॥ ४३ वल्भते दिननिशीथयोः सदा यो निरस्तयमसंयमक्रियः ।
शङ्गपृच्छशफसङ्गजितो भण्यते पशुरयं मनीषिभिः ४४ हैं कि नवनीतके दो मुहूर्त्तकी मर्यादा तपाकर बी बनानेकी अपेक्षासे कही गई है, न कि खानेकी अपेक्षासे । अतएव मक्खनका खाना उचित नहीं हैं, क्योंकि लारके संयोगसे और भी असंख्य सूक्ष्म जीव उसमें उत्पन्न हो जाते है । अतएव जो जिनेन्द्र देवके वचनानुसार आचरण करने वाले हैं घोर संसार-कान्तारके निपातसे भयभीत है, वे पुरुष मद्य, मांस, मधु और नवनीत इन चारों ही अतिनिन्द्य पदार्थोंको जीवन भरके लिए मन वचन कायसे खानेका परित्याग कर देते है ।।३७॥ जो लोग गद्धि, राग और हिंसाका संग बढानेवाले मद्य, मांस, मधु और नवनीत इन चारोंको ही सदा खाते रहते हैं, वे निश्चयसे इस चतुर्गतिरूप संसार समुद्र में गोता खाते रहते है ।।३८।। जो अधम चंचल चित्त पुरुष इन मद्य मांसादिकमेंसे किसी एक भी निंद्य पदार्थका सेवन करता हैं, वह भी संसार-सागरमें परिभ्रमण करता हैं, फिर सभीके खाने वालेकी तो बात ही क्या कहना है ।।३९।। अब आचार्य रात्रि-भोजनका निषेध करते है-जिस रात्रिमें राक्षस, भूत और पिशाचोंका संचार होता है, जिसमें सूक्ष्म जन्तुओंका समूह दिखाई नहीं देता है, जिसमें स्पष्ट न दिखनेसे त्यागी हुई भी वस्तु खा ली जाती हैं, जिसमें घोर अन्धकार फैलता हैं, जिसमें साधु वर्गका संगम नहीं है, जिसमें देव और गुरुकी पूजा नहीं की जाती है, जिसमें खाया गया भोजन संयमका विनाशक है, जिसमें जीते जीवोंके भी खानेकी संभावना रहती है, जिसमें सभी शुभ कार्योंका अभाव होता हैं, जिसमें संयमी पुरुष गमनागमन क्रिया भी नहीं करते हैं, एसे महादोषोंके आलय भूत, दिनके अभाव स्वरूप रात्रिके समय धर्म-कार्यो में कुशल पुरुष भोजन नहीं करते हैं ।। ४०-४२।। खानेकी गृद्धिताके दोषवशवर्ती जो दुष्ट चित्त पुरुष रात्रिमें खाते है, वे लोग भूत, राक्षस, पिशाच और शाकिनी-डाकिनियोंकी संगतिको कैसे छोड सकते है? अर्थात् रात्रिमें राक्षस पिशाचादिक ही खाते है, अतः रात्रिभोजियोंको उन्हींकी संगतिका जानना चाहिये ।।४३।। जो मनुष्य यम-नियम-संयमादिकी क्रियाओंको छोडकर रात्रि
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