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________________ ३०८ श्रावकाचार-संग्रह आमनन्ति दिवसेषु भोजनं यामिनीषु शयनं मनीषिणः । ज्ञानिनामवरेषु जल्पनं शान्तये गुरुषु पूजनं कृतम् ।। ४५ भुज्यते गुणवर्तकदा सदा मध्यमेन दिवसे द्विरुज्ज्वले । न रात्रिदिनयोरनारतं भुज्यते स कथितोऽधमो नरः ॥ ४६ यो विवर्ण्य वदनावसानयोर्वासरस्य घटिकाद्वयं सदा । भुञ्जते जितहृषीकवादिनस्ते भवन्ति भवभारवजिताः ॥ ४७ ये विधाय गुरुदेवपूजनं भुञ्जतेऽन्हि विमले निराकुलाः । ते विधूय लघु मोहतामसं सम्भवन्ति सहसा महोदयाः ॥ ४८ यो विमुच्य निशि भोजनं त्रिधा सर्वदाऽपि विदधाति वासरे। तस्य याति जननार्धमञ्चितं मुक्तिर्वाजतमपास्तरेकसः । ४९ यो निवृत्तिमविधाय वल्भनं वासरेषु विदधाति मूढधीः । तस्य किञ्चन न विद्यते फलं भावि तेन भुविना कुलान्तरम् ।। ५० ये व्यवस्थितमहत्सु सर्वदा शर्वरीषु रचयन्ति भोजनम् । निम्नगामि सलिलं निसर्गतस्ते नयन्ति शिखरेषु शाखिनाम् ।। ५१ सूचयन्ति सुखदायि येऽङ्गिनां रात्रिभोजनमपास्तचेतनाः । पावकोद्धतशिखाकरालितं ते वदन्ति फलदायि काननम् ॥ ५२ ये ब्रुवन्ति दिनरात्रिभोगयोस्तुल्यतां रचितपुण्यपापयोः । ते प्रकाशतमसोः समानतां दर्शयन्ति सुखदुःखकारिणोः ।। ।। ५३ दिन सदा ही खाया करता हैं, उसे ज्ञानी पुरुष सींग, पूछ और खुरके संगसे रहित पशु कहते हैं ||४४ || बुद्धिमान् लोग तो दिनमें भोजन, रात्रिमें शयन, ज्ञानियोंके मध्य में अवसर पर संभाषण और गुरुजनों में किया गया पूजन शान्तिके लिए मानते है ॥ ४५ ॥ Jain Education International गुणवान् उत्तम पुरुष दिनमें दो बार भोजन करते हैं । किन्तु जो रात्रि दिन निरन्तर भोजन करता है, बह अधम पुरुष कहा गया हैं ||४६ || इन्द्रियोंरूपी बोडोंको जीतनेवाले जो पुरुष दिनकी आदि और अन्तिम दो दो घडी समयको छोड़कर भोजन करते हैं, वे ही पुरुष संसारके भारसे रहित होते हैं अर्थात् मोक्षको प्राप्त करते है ॥४७॥ जो पुरुष देव और गुरुका पूजन करके दिन के निर्मल प्रकाशमें निराकुल होकर भोजन करते है, वे शीघ्र ही मोहरूप महा अन्धकारका नाश कर सहसा महान् उदयवाले होते हैं, अर्थात् आईन्त्य पदको पाते हैं । ४८ । जो पुरुष मन वचन कायसे रात्रिमें भोजनका परित्याग करके सदा ही दिन में भोजन करता है, पापसे रहित उस पुरुषका रात्रि में भोजन के परित्यागसे आधा जन्म उपवासके साथ व्यतीत होता हैं । भावार्थ - रात्रिभोजन त्यागी अपने जीवनके आधे भागको उपवासके साथ व्यतीत करनेसे महान् पुण्यका संचय और दुष्कर्मकी निर्जरा करता है ॥ ४९ ॥ जो मूढ पुरुष रात्रि भोजनकी निवृत्ति नहीं करके दिनमें भी भोजन करते है, उनके उसका कुछ भी फल नहीं होता हैं। हां, उनका भावी जन्म दिवाभोजी कुलमें होना संभव है ||५० || जो रात्रिमें दीपकादिका प्रकाश करके सदा भोजन करते हैं, वे स्वभावतः नीचे की ओर बहनेवाले जलको वृक्षोंके शिखरों पर ले जाना चाहते है ||५१ ॥ जो अज्ञानी पुरुष रात्रि भोजनको जीवोंके लिए सुखदायी कहते है, वे आगकी उद्धत शिखाओंसे विकरालताको प्राप्त हुए वनको फलोंको देनेवाला कहते है ॥ ५२ ॥ जो लोग For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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