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________________ ३०६ श्रावकाचार-संग्रह म्लेच्छलोकमुखलालयाऽविलं मद्यमांसशितभाजनथितम् । सार, गतघणस्य स्वादतः कीदृशं भवति शौचमुच्यताम् ॥ २९ यश्चिखादिषति सारघं कुधीर्मक्षिकागणविनाशनस्पृहः । पापकर्दमनिषेधनिम्नगा तस्य हन्त करुणा कुतस्तनी ॥ ३० भक्षितो मधुकणोऽपि सञ्चितं सूक्ते झटिति पुण्यसञ्चयम् । काननं विषमशोचिषः कणः किं न भस्मयति वृक्षसङ्कटम् ३१ योऽत्ति नाम मधु भेषजेच्छया सोऽपि याति लघु दुःखमुल्बणम् । किन नाशयति जीवितेच्छया मक्षितं झटिति जीवितं विषम् ॥ ३२ घोरदुःखदमवेत्य कोविदा वर्जयन्ति मधु शर्मकांक्षिणः । कुत्र तापकमवेत्य पावकं गृण्हते शिशिरलोलमानसाः ॥ ३३ संसजन्ति विविधाः शरीरिणो यत्र सूक्ष्मतनवो निरन्तराः । तद्ददाति नवनीतमङ्गिनां पापतो न परमत्र सेवितम् ।। ३४ चित्रजीवगणसूदनास्पदं विलोक्य नवनीतमद्यते। तेषु संयमलवोऽपि विद्यते धर्मसाधनपरायणः कुतः ॥ ३५ यन्महूर्तयुगतः परं सदा मूर्च्छति प्रचरजीवराशिभिः । तद् गिलन्ति नवनीतमत्र ये ते व्रजन्ति खलु कां गति मृताः । ३६ जानना चाहिए ॥२८॥ म्लेच्छ लोगोंके मुखकी लारसे व्याप्त, मद्य और मांसके संचयवाले पात्र में रखे हुए मधुको खानेवाले निर्दयी पुरुषके पवित्रता कैसे रह सकती है, सो कहिये ।।२९।। जो कुबुद्धी पुरुष मक्षिका-समूहके विनाशकी इच्छा रखता हुआ मधुको खाना चाहता है, उस पुरुषके पापरूप पंकको धोनेवाली नदीके समान करुणा बुद्धि कैसे हो सकती हैं? अर्थात् कभी नहीं हो सकती॥३००॥ मधुका खाया हुआ एक कण भी बहुत कालसे संचित किये पुण्यके पुंजको क्षण मात्र में नष्ट कर देता है । विषम वन्हिका एक कण क्या वृक्षोंसे व्याप्त वनको नहीं जला देता हैं? अर्थात् जला ही देता है ।।३१।। जो पुरुष औषधि की इच्छासे भी मधुको खाता है,वह भी शीघ्र उग्र दुःखको प्राप्त होता है । क्या जीनेकी इच्छासे खाया गया विष शीघ्र ही जीवनको नष्ट नहीं करता है? करता ही है ।।३२।। इस प्रकारसे घोर दुःखदायी मधुको जानकर सुखके वांछक विद्वान् मधुका परित्याग करते हैं । शीतलता पानेकी लालसावाले मनुष्य तापकारी पावकको जानकर कहाँ ग्रहण करते है, अर्थात् नहीं ग्रहण करते है। अतः ज्ञानियोंको मधु-भक्षण सर्वथा छोड देना चाहिए ॥ ३३॥ अब आचार्य नवनीत (मक्खन) भक्षणका निषेध करते है-जिसके भीतर सूक्ष्मशरीर वाले नाना प्रकारके प्राणी निरन्तर उत्पन्न होते रहते है, ऐसे नवनीतका सेवन मनुष्योंको उस पापका संचय देता है, जिससे बडा और कोई पाप संसारमें नहीं है ।।३४।। नाना प्रकारके जीवसमूहके विनाशका स्थान ऐसा नवनीत देखकर भी जो लोग उसे खाते हैं, उनमें संयमका लेश भी नहीं हैं, फिर धर्मसे साधनकी तत्परता तो कैसे हो सकती हैं ॥३५ । जिस नवनीतमें दो महर्तके पश्चात् प्रचुर जीबराशि सदा उत्पन्न होती रहती हैं, उस नवनीतको जो लोग यहाँ पर खाते है, वे मरकर कौन सी गतिको जाते है, यह हम नहीं जानते ॥३६॥ यहाँ इतना विशेष ज्ञातव्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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