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________________ पुराषार्थसिद्धयुपाप १०१ एवं सम्यग्दर्शनबोधचरित्रत्रयात्मको नित्यम्। तस्यापि मोक्षमार्गो भवति निषेव्यो यथाशक्ति ।। २० तत्रादौ सम्यक्त्वं समुपाश्रयणीयमखिलयत्नेन । तस्मिन् सत्येव यतो भवति ज्ञानं चरित्रं च ।।२१ जीवाजीवादीनां तत्त्वार्थानां सदैव कर्तव्यम् । श्रद्धानं विपरीतामिनिवेशविविक्तमात्मरूपं तत्।।२२ सकलमनेकान्तात्मकमिदमुक्तं वस्तुजातखिलज्ञैः। किम् सत्यमसत्यं वा न जातु शङ्कति कर्तव्या ।। २३ इह जन्मनि विभवादीनमुत्र चक्रि:व-केशवत्वादीन् । एकान्तवाददूषितपरसमयानपि च ना काङ्क्षत् ।। २४ क्षुत्तृष्णाशीतोष्णप्रभृतिषु नानाविधेष भावेष । द्रव्येषु पुरीषादिषु विचिकित्सा नैव करणीया ॥२५ लोके शास्त्राभासे समयाभासे च देवताभासे । नित्यमपि तत्त्वरुचिना कर्तव्यममूढदृष्टित्वम् ।।२६ धर्मोऽभिवर्धनीयः सदाऽऽत्मनो मार्दवादिभावनया। परदोषनिगू हनमपि विधेयमुपबृंहणगुणार्थम्।।२७ कामक्र धमदादिषु चलयितुमदितेषु वर्त्मनो न्यायात् । श्रुतमात्मनः परस्य च युक्त्या स्थितिकरणमपि कार्यम् ।। २८ अनवरतहिसायां शिवसुखलक्ष्मीनिबन्धने धर्मे । सर्वेष्वपि च समिषु परमं वात्सल्यमालम्ब्यम् ।। २९ आत्मा प्रभावनीयो रत्नत्रयतेजसा सततमेव । दानतपोजिनपूजाविद्यातिशयश्च जिनधर्मः॥३० ज्ञान,चारित्ररूप रत्नत्रयात्मक मोक्षमार्ग यथाशक्ति नित्य ही सेवनीय है ।।२०। इन तीनोंमेंसे आदिमें सर्वप्रकारके प्रयत्नसे सम्यग्दर्शन उत्तम रीतिसे अंगीकार करना चाहिए, क्योंकि उसके होने पर ही ज्ञान और चारित्र सभ्यपनेको प्राप्त होते है ।।२१।। जीव-अजीव आदि सात तत्त्वोंके यथार्थ स्वरूपका विपरीत अभिनिवेशसे रहित सदा ही श्रद्धान करना चाहिए,क्योंकि वह आत्माका स्वरूप हैं।।२२।।अब आचार्य सम्यक्त्वके आठ अंगोंका वर्णन करते है-१ निःशङ्कित अङग-सर्वज्ञ देवोंके द्वारा यह समस्त वस्तु-समुदाय अनेक धर्मात्मक कहा गया है,सो क्या यह सत्य है, अथवा असत्य हैं,ऐसी शङ्का कदाचित् भी नहीं करना चाहिए ॥२३॥ २ निःकाङक्षित अङग-इस जन्ममें ऐश्वर्य सम्पदा आदिकी और परभवमें चक्रवर्ती, नारायण आदिके पद पानेकी, तथा एकान्तवादसे दूषित अन्य मतोंकी भी आकांक्षा नहीं करना चाहिए ।।२४॥ ३. निविचिकित्सा अङग-भूख-प्यास,शीतउष्ण आदि नाना प्रकारके भावोंमें,तथा मल-मूत्रादि द्रव्योंमें ग्लानि नहीं करना चाहिए !॥२५॥ ४. लोकाचारमें, मिथ्याशास्त्रोंमें,मिथ्याधर्मोमें और मिथ्यादेवताओंमें तत्त्वश्रद्धानी पुरुषको सदा ही मूढता-रहितदृष्टि रखना चाहिए ।२६।। ५. उपगृहन अंग-मार्दव आदिकी भावनासे सदा ही आत्माके धर्मको बढाना चाहिए । तथा आत्मगुणोंके बढानेके लिए पराये दोषोंका उपगृहन भी करना चाहिए ॥२७।। ६. स्थितिकरण अङग-काम क्रोध मद आदि भावोंके उदय होनेपर न्यायमार्गसे चलते (डिगते) हुए अपने आपका और अन्य पुरुषका जिस प्रकार भी संभव हो,उस प्रकारकी युक्तिसे स्थितिकरण भी करना चाहिए ॥२८॥ ७. वात्सल्य अङग-अहिंसामे, शिव-सुखरूप लक्ष्मी-प्राप्तिके कारणभूत रत्नत्रय धर्ममें और सभी साधर्मी जनोंमें परम वात्सल्यका आलम्बन करना चाहिए ॥२ ॥८. प्रभावना अङग-रत्नत्रयके तेजसे निरन्तर ही अपनी आत्माको प्रभावित करना चाहिए तथा दान तप जिन-पूजन और विद्याके अतिशयके द्वारा जिनधर्मकी प्रभावना करना चाहिए॥३०॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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