________________
१००
श्रावकाचार-संग्रह परिणममानो नित्यं ज्ञानविवतैरनादिसन्तत्या। परिणामानां स्वेषां स भवति कर्ता च भोक्ता च ॥ १. सर्वविवतॊत्तीर्ण यदा स चैतन्यमचलमाप्नोति ।
भवति तदा कृतकृत्यः सम्यक्पुरुषार्थसिद्धिमापन्नः ॥ ११ जीवकृतं परिणाम निमित्तमात्रं प्रपद्य पुनरन्ये । स्वयमेव परिणमन्तेऽत्र पुद्गलाः कर्मभावेन ।।१२
परिणममानस्य चितश्चिदात्मकः स्वयमपि स्वकैविः ।
भवति हि निमित्तमात्रं पौद्गलिक कर्म तस्यापि ।। १३ एवमयंकर्मकृतर्भावरसमाहितीऽपि यक्त इवाप्रतिभाति बालिशानां प्रतिभासःसखल भवब.जम्।।१४
विपरीताभिनिवेशं निरस्य सम्यग व्यवस्य निजतत्त्वम् । यत्तस्मादविचलनं स एव पुरुषार्थसिद्धयुपायोऽयम् ॥ १५ अनुसरतां परमेतत करम्बिताचार नित्यनिरभिमुखाः ।
एकान्तविरतिरूपा भवति मुनीनामलौकिकी वृत्तिः ।। १६ बहुशः समस्तविरति प्रदर्शितां यो न जातु गृण्हाति । तस्यैकदेशविर तिः कथनीयाऽनेन बीजेन ॥१७
यो यतिधर्ममकथयन्नुपदिशति गृहस्थधर्ममल्पमतिः । तस्य भगवत्प्रवचने प्रदर्शितं निग्रहस्थानम् ।। १८ अक्रमकथनेन यतः प्रोत्सहमानोऽतिदूरमपि शिष्यः ।
अपदेऽपि सम्प्रतप्त प्रतारितो भवति तेन दुर्मतिना ।। १९ हुआ अपने परिणामोंका कती भी है और भोक्ता भी है ।।१०।। जब यह सर्व विभावपर्यायोंसे उत्तीर्ण (पार)होकर अचल चैतन्यस्वरूपको प्राप्त करता हैं, तब सच्ची पुरुषार्थसिद्धिको पाकर कृतकृत्य होता हैं।।११।। इस संसारमें जीवकृत रागादिरूप परिणामका निमित्तमात्र पाकर पुनः अन्य पुद्गल स्वयमेव ही कर्मरूपसे परिणत हो जाते है ॥१२॥ अपने चिदात्मक रागादि भावोंके द्वारा स्वयं ही परिणमन करने वाले उस चेतन आत्माके भी पौद्गलिक कर्म निमित्तमात्र ही होता है ।।१३।। इस प्रकार यह आत्मा कर्म-कृत भावोंसे असंयुक्त होते हुए भी अज्ञानी जनोंको संयुक्तके समान प्रतिभासित होता हैं और उसका यह प्रतिभास ही निश्चयसे उसके संसारका-जन्म-स्मरणका-बीज हैं।।१४।। जब यह विपरीत अभिनिवेशको दूर कर और निज-स्वरूपको सम्यक् प्रकारसे निश्चय कर उससे अविचल होता हैं, तब यह वही जीवके अपने पुरुषार्थको सिद्ध करनेका उपाय हैं ॥१५॥ पुरुषार्थसिद्धिके इस पदका अनुसरण करनेवाले मुनिजनोंकी पापक्रिया-मिश्रित आचारसे सर्वदा परान्मुख और एकान्त विरति-(सर्वथा त्याग-) रूप अलौकिक वत्ति होतो है।।१६॥जो पुरुष अनेक वार उपदेश की गई समस्त विरतिको कदाचित् ग्रहण नहीं करता हैं,तो उसे इस बीज-(कारण-) से एक देश विरति कहना चाहिए।।१७।।जो अल्प बुद्धि पुरुष यति धर्मको नहीं कहता हुआ गृहस्थ धर्मका उपदेश देता हैं, उसका भगवत्प्रवचनमें निग्रहस्थान प्रदर्शित किया गया हैं । अर्थात् जो उपदेष्टा पहले मुनिधर्मका उपदेश न देकर श्रावक धर्मका उपदेश देता हैं, वह जिनागममें दण्डका पात्र कहा गया हैं।।१८।। क्योंकि मुनिधर्मको धारण करने के लिए प्रोत्साहित हुआ भी शिष्य उस उपदेशकके अक्रमकथनसे अपद (हीन श्रावकपद) में ही सन्तुष्ट हो जाता हैं, अतः उस दुर्मतिके द्वारा वह अतिदूर तक (दीर्घकालके लिए) ठगा गया है।।१९।। इस प्रकार उस गृहस्थको भी सम्यग्दर्शन,
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org :